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मतिज्ञान ]
करने में आते हैं ?'
ऐसा पूछने पर प्ररूपक—– गुरु ने उत्तर दिया—
" एक समय में प्रविष्ट हुए पुद्गल ग्रहण करने में नहीं आते, न दो समय अथवा दस समय में और न ही संख्यात समय में, अपितु असंख्यात समयों में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गल ग्रहण करने में आते हैं।" इस तरह यह प्रतिबोधक के दृष्टान्त से व्यंजन- अवग्रह का स्वरूप वर्णित किया गया। विवेचन — सूत्रकार ने व्यंजनावग्रह को समझाने के लिए प्रतिबोधक का दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया है। जैसे—कोई व्यक्ति, प्रगाढ निद्रा-लीन किसी पुरुष को संबोधित करता है " ओ भाई ! अरे ओ भाई ! !"
ऐसे प्रसंग को ध्यान में लाकर शिष्य ने पूछाशब्द- पुद्गल श्रोत्र के द्वारा अवगत हो सकते हैं?"
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गुरु
'भगवन्! क्या एक समय के प्रविष्ट हुए ने कहा- 'नहीं । '
तब शिष्य ने पुनः प्रश्न किया " भगवन् ! तब क्या दो समय दस समय या संख्यात यावत् असंख्यात समय में प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गलों को वह ग्रहण करता है?"
प्रेरक
कहलाता
गुरु ने समझाया - वत्स ! एक समय से लेकर संख्यात समयों में प्रविष्ट हुए शब्द - पुद्गलों को भी वह सुप्त पुरुष ग्रहण – जान नहीं सकता, अपितु असंख्यात समय तक के प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गल ही अवगत होते हैं।" वस्तुतः एक बार आँखों की पलकें झपकने जितने काल में असंख्यात समय लग जाते हैं। हाँ, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि एक से लेकर संख्यात समयपर्यन्त श्रोत्र में जो शब्द- पुद्गल प्रविष्ट होते हैं, वे सब अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान के जनक होते हैं। कहा भी है 'जं वंजणोग्गहणमिति भणियं विण्णाणं अव्वत्तमिति ।' उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि असंख्यात समय के प्रविष्ट शब्द- पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक होते हैं ।
व्यञ्जनावग्रह का कालमान जघन्य आवलिका के असंख्येय भागमात्र है और उत्कृष्ट संख्येय आवलिका प्रमाण होता है, वह भी 'पृथक्त्व' (दो से लेकर नौ तक की संख्या) 'श्वासोच्छ्वास' प्रमाण जानना चाहिये ।
सूत्र में शिष्य के लिये 'चोयग' शब्द आया है उसका अर्थ है— प्रेरक । वह उत्तर के लिए । प्रज्ञापक पद गुरु का वाचक है । वह सूत्र और अर्थ की प्ररूपणा करने के कारण प्रज्ञापक
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मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह
६३ से किं तं मल्लगदिट्ठतेणं ? से जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसाओ मल्लगं हाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्खेविज्जा, से नट्ठे, अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि नट्ठे, एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिइत्ति, होही से उदगबिंदू जे णं तंसि मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं भरिहिति, होही से उदगबिंदू जेणं मल्लगं पवोहेहिति ।