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________________ मतिज्ञान] [१४३ एकसामयिक अर्थावग्रह होता है, वह नैश्चयिक (पारमार्थिक) अर्थावग्रह है। तत्पश्चात् ईहा और अवाय ज्ञान होते हैं। किन्तु बहुत बार अवाय द्वारा पदार्थ का निश्चय हो जाने के अनन्तर भी उसके किसी नवीन धर्म को जानने की अभिलाषा होती है। वह ईहा है। उसके पश्चात् पुनः उस नवीन धर्म का निश्चय-अवाय होता है। ऐसी स्थिति में जिस अवाय के पश्चात् पुनः ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवाय, ईहाज्ञान का पूर्ववर्ती होने के कारण व्यावहारिक (उपचरित) अवग्रह कहा जाता है। इस प्रकार जिस-जिस अवाय के पश्चात् नवीन-नवीन धर्मों को जानने की अभिलाषा (ईहा) उत्पन्न हो, वे सभी अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह में ही परिगणित हैं। उदाहरणार्थ—'यह मनुष्य है' इस प्रकार के निश्चयात्मक अवायज्ञान के पश्चात् 'देवदत्त है या जिनदत्त?' यह संशय हुआ। फिर 'जिनदत्त होना चाहिए' यह ईहाज्ञान होने के अनन्तर 'जिनदत्त ही है' यह अवायज्ञान हुआ। इस क्रम में 'यह मनुष्य है' यह अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह कहा जायेगा। किन्तु जिस अवाय के पश्चात् नवीन धर्म को जानने की ईहा नहीं होती, उसे व्यावहारिक अर्थावग्रह नहीं कहा जाता, वह अवाय ही कहलाता है। अवग्रह आदि का काल ६१-(१) उग्गहे इक्कसमइए, (२) अंतोमुहुत्तिआ ईहा, (३) अंतोमुहुत्तिए अवाए (४) धारणा संखेन्जं वा कालं, असंखेज्जं वा कालं। ॥ सू० ३५॥ ६१—(१) अवग्रह ज्ञान का काल एक समय मात्र का है। (२) ईहा का काल अन्तर्मुहूर्त है। (३) अवाय भी अन्तर्मुहूर्त तक होता है तथा (४) धारणा का काल संख्यात अथवा (युगलियों की अपेक्षा से) असंख्यात काल है। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में चारों का कालप्रमाण बताया गया है। अर्थावग्रह एक समय तक, ईहा और अवाय का काल अलग-अलग अन्तर्मुहूर्त का है। धारणा अन्तर्मुहूर्त से लेकर संख्यात और असंख्यात काल तक रह सकती है। इसका कारण यह है कि यदि किसी संज्ञी प्राणी की आयु संख्यातकाल की हो तो धारणा संख्यातकाल तक और अगर आयु असंख्यात काल की हो तो धारणा १. 'सामण्णमेत्तगहणं, निच्छयओ समयमोग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहिय-वत्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥ सो पुणरीहावाय विक्खाओ, उग्गहत्ति उवयरिओ। एस विसेसावेक्खा, सामन्नं गेहए जेण। तत्तोऽणंतरमीहा, तओ अवायो य तव्विसेसस्स। इह सामन्न-विसेसावेक्खा, जावन्तिमो भेओ। सव्वत्थेहावाया निच्छयओ, मोत्तुमाइसामन्नं । संववहारत्थं पुण, सव्वत्थावग्गहोऽवाओ ।। तरतमजोगाभावेऽवाओ, च्चिय धारणा तदन्तम्मि। सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालन्तर सई य॥' विशेषावश्यकभाष्य
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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