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मतिज्ञान]
[१३१ पर ग्वालों ने उनसे कहा "भगवन्! आप इधर से न पधारें क्योंकि मार्ग में एक बड़ा भयंकर दृष्टिविष सर्प रहता है, जिसके कारण दूर-दूर तक कोई भी प्राणी जाने का साहस नहीं करता। आप श्वेताम्बिका नगरी के लिए दूसरा मार्ग ग्रहण करें।" भगवान् ने ग्वालों की बात सुनी पर उस सर्प को प्रतिबोध देने की भावना से वे उसी मार्ग पर आगे बढ़ गये।
___ चलते-चलते वे विषधर सर्प की बाँबी पर पहुँचे और वहीं कायोत्सर्ग में स्थिर हो गए। कुछ क्षणों के पश्चात् ही नाग बाहर आया और अपने बिल के समीप ही एक व्यक्ति को खड़े देखकर क्रोधित हो गया। उसने अपनी विषैली दृष्टि भगवान् पर डाली किन्तु उन पर कोई असर नहीं हुआ। यह देखकर सर्प ने आगबबूला होकर सूर्य की ओर देखा तथा फुफकारते हुए पुनः विषाक्त दृष्टि उन पर फेंकी। उसका भी जब असर नहीं हुआ तो उसने तेजी से सरसराते हुए आकर भगवान् के चरण के अंगूठे को जोर से डस लिया। पर डसने के बाद स्वयं ही यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गया कि उसके विष का तो कोई प्रभाव हुआ नहीं उलटे अंगूठे से निकले हुए रक्त का स्वाद ही बड़ा मधुर और विलक्षण है! यह अनुभव करने के बाद उसे विचार आया यह साधारण नहीं अपितु कोई विलक्षण और अलौकिक पुरुष है।, बस, सर्प का क्रोध शान्त तो हुआ ही, उलटा वह बहुत भयभीत होकर दीन-दृष्टि से ध्यानस्थ भगवान् की ओर देखने लगा।
तब महावीर प्रभु ने ध्यान खोला और अत्यन्त स्नेहपूर्ण दृष्टि से उसे सम्बोधित करते हुए. कहा "हे चण्डकौशिक! बोध को प्राप्त करो तथा अपने पूर्व भव को स्मरण करो! पूर्व जन्म में तुम साधु थे और एक शिष्य के गुरु भी। एक दिन तुम दोनों आहार लेकर लौट रहे थे, तब तुम्हारे पैर के नीचे एक मेंढक दबकर मर गया था। तम्हारे शिष्य ने उसी समय तमसे आलोचना करने के लिये कहा था किन्त तमने ध्यान नहीं दिया। शिष्य ने सोचा "गरुदेव स्वयं तपस्वी हैं. सायंकाल स्वयं आलोचना करेंगे।" किन्तु तुमने सांयकाल प्रतिक्रमण के समय भी आलोचना नहीं की तो सहज भाव से शिष्य ने आलोचना करने का स्मरण कराया । पर उसकी बात सुनते ही तुम क्रोध में पागल होकर शिष्य को मारने के लिए दौड़े परन्तु मध्य में स्थित एक खंभे से टकरा गये। तुम्हारा मस्तक स्तंभ से टकराकर फट गया और तुम मृत्यु को प्राप्त हुए। भयंकर क्रोध करते समय मरने से तो तुम्हें यह सर्प-योनि मिली है और अब पुनः क्रोध के वशीभूत होकर अपना जन्म बिगाड़ रहे हो! चण्डकौशिक, अब स्वयं को सम्हालो, प्रतिबोध को प्राप्त करो।
__ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से तथा भगवान् के उपदेश से चण्डकौशिक को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने अपने पूर्वभव को जाना। अपने क्रोध व अपराध के लिए पश्चात्ताप करने लगा। उसी समय उसने भगवान् को विनयपूर्वक वन्दना की तथा आजीवन अनशन कर लिया। साथ ही दृष्टिविष होने के कारण उसने अपना मुंह बिल में डाल लिया, शरीर बाहर रहा।
कुछ काल पश्चात् ग्वाले भगवान् की तलाश में उधर आए। उन्हें सकुशल वहाँ से रवाना होते देख वे महान् आश्चर्य में पड़ गए। इधर जब उन्होंने चण्डकौशिक को बिल में मुंह डालकर पड़े देखा तो उस पर पत्थर तथा लकड़ी आदि से प्रहार करने लगे। चण्डकौशिक सभी चोटों को