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मतिज्ञान ]
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आया ? उसकी प्रतिभा के कायल होते हुए उन्होंने उपाश्रय में प्रवेश किया । आचार्य को देखते ही वज्रमुनि ने उठकर उनके चरणों में विनयपूर्वक नमस्कार किया तथा समस्त उपकरणों को यथास्थान रख दिया। इसी बीच अन्य मुनि भी आ गए तथा आहारादि ग्रहण करके अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गये ।
इसके अनन्तर आचार्य सिंहगिरि कुछ समय के लिये अन्यत्र विहार कर गये और वज्रमुनि को वाचना देने का कार्य सौंप गये। बालक वज्रमुनि आगमों के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को इस सहजता से समझाने लगे कि मन्दबुद्धि मुनि भी उसे हृदयंगम करने लगे । यहाँ तक कि उन्हें पूर्व प्राप्त ज्ञान में जो शंकाएँ थीं, वज्रमुनि ने शास्त्रों की विस्तृत व्याख्या के द्वारा उनका भी समाधान कर दिया। सभी साधुओं के हृदय में वज्रमुनि के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई और वे विनयपूर्वक उनसे वाचना लेते रहे।
आचार्य पुनः लौटे तथा मुनियों से वज्रमुनि की वाचना के विषय में पूछा। मुनियों ने पूर्ण सन्तोष व्यक्त करते हुए उत्तर दिया- 'गुरुदेव ! वज्रमुनि सम्यक् प्रकार से हमें वाचना दे रहे हैं, कृपया सदा के लिये यह कार्य इन्हें सौंप दीजिए।' आचार्य यह सुनकर अत्यन्त सन्तुष्ट एवं प्रसन्न हुए और बोले - " वज्रमुनि के प्रति आप सबका स्नेह व सद्भाव जानकर मुझे सन्तोष हुआ । मैंने . इनकी योग्यता तथा कुशलता का परिचय देने के लिये ही इन्हें यह कार्य सौंपकर विहार किया था । " तत्पश्चात् यह सोचकर कि गुरुमुख से ग्रहण किये बिना कोई वाचनागुरु नहीं बन सकता, आचार्य ने श्रुतधर वज्रमुनि को अपना ज्ञान स्वयं प्रदान किया ।
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक समय आचार्य अपने सन्त समुदाय सहित दशपुर नगर में पधारे। उन्हीं दिनों अवन्ती नगरी में आचार्य भद्रगुप्त वृद्धावस्था के कारण स्थिरवास कर रहे थे । सिंहगिरि ने अपने दो अन्य शिष्यों के साथ वज्रमुनि को उनकी सेवा में भेज दिया । वज्रमुनि ने आचार्य भद्रगुप्त की सेवा में रहकर उनसे दस पूर्वों का ज्ञान प्राप्त किया। उसके बाद ही आचार्य सिंहगिरि देवलोकवासी हुए किन्तु उससे पहले उन्होंने वज्रमुनि को आचार्यपद प्रदान कर दिया ।
अब आचार्य वज्रमुनि विचरण करते हुए स्व-परकल्याण में रत हो गये। अपने तेजस्वी स्वरूप, अथाह शास्त्रीय ज्ञान, अनेक लब्धियों और इसी प्रकार की अन्य विशेषताओं ने सर्व दिशाओं में उनके प्रभाव को फैला दिया और असंख्य भटकी हुई आत्माओं ने उनसे प्रतिबोध प्राप्तकर आत्मकल्याण किया।
वज्रमुनि ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा ही माता के मोह को दूर करके उसे मुक्ति के मार्ग पर लगाया तथा स्वयं भी संयम ग्रहण करके अपना तथा अनेकानेक भव्य प्राणियों का उद्धार किया ।
(१६) चरणाहत——किसी नगर में एक युवा राजा राज्य करता था । उसकी अपरिपक्व अवस्था का लाभ उठाने के लिये कुछ युवकों ने आकर उसे सलाह दी―"महाराज! आप तरुण हैं तो आपका कार्य संचालन करने के लिए भी तरुण व्यक्ति ही होने चाहिए। ऐसे व्यक्ति अपनी