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[नन्दीसूत्र समीप गया और बोला "देव! मैं वृद्ध हो गया हूँ। अब काम करने की शक्ति भी नहीं रह गई है। अतः शेष जीवन में भगवद्-भजन में व्यतीत करना चाहता हूँ। मेरा पुत्र वरधनु योग्य हो गया है, अब राज्य की सेवा वही करेगा।"
इस प्रकार दीर्घपृष्ठ से आज्ञा लेकर मंत्री धनु वहां से रवाना हो गया और गंगा के किनारे एक दानशाला खोलकर दान देने लगा। पर इस कार्य की आड़ में उसने अतिशीघ्रता से एक सुरंग खुदवाई जो लाक्षागृह में निकली थी। राजकुमार का विवाह तथा लाक्षागृह का निर्माण सम्पन्न होने तक सुरंग भी तैयार हो चुकी थी।
विवाह के पश्चात् नवविवाहित ब्रह्मदत्त कुमार और दुल्हन को वरधनु के साथ लाक्षागृह में पहुँचाया गया, किन्तु अर्धरात्रि के समय अचानक आग लग गई और लाक्षागृह पिघलने लगा। यह देखकर कुमार ने घबराकर वरधनु से पूछा- "मित्र! यह क्या हो रहा है? आग कैसे लग गई?" तब वरधनु ने संक्षेप में दीर्घपृष्ठ और रानी के षड्यन्त्र के विषय में बताया। साथ ही कहा "आप घबरायें नहीं, मेरे पिताजी ने इस लाक्षागृह से गंगा के किनारे तक सुरंग बनवा रखी है और वहां घोड़े तैयार खड़े हैं। वे आपको इच्छित स्थान तक पहुँचा देंगे। शीघ्र चलिए! आप दोनों को सुरंग द्वारा यहाँ से निकालकर मैं गंगा के किनारे तक पहुँचा देता हूँ।"
इस प्रकार अमात्य धनु की पारिणामिकी बुद्धि द्वारा बनवाई हुई सुरंग से राजकुमार ब्रह्मदत्त सकुशल मौत के मुंह से निकल गये तथा कालान्तर में अपनी वीरता एवं बुद्धिबल से षट्खंड जीतकर चक्रवर्ती सम्राट् बने।
(१०) क्षपक- एक बार तपस्वी मुनि भिक्षा के लिये अपने शिष्य के साथ गये। लौटते समय तपस्वी के पैर के नीचे एक मेंढक दब गया। शिष्य ने यह देखा तो गुरु से शुद्धि के लिये कहा, किन्तु शिष्य की बात पर तपस्वी ने ध्यान नहीं दिया। सायंकाल प्रतिक्रमण करने के समय पुनः शिष्य ने मेंढ़क के मरने की बात स्मरण कराते हुए गुरु से विनयपूर्वक प्रायश्चित्त लेने के लिये कहा। किन्तु तपस्वी आग बबूला हो उठा और शिष्य को मारने के लिये झपटा। झोंक में वह तेजी से आगे बढ़ा किन्तु अंधकार होने के कारण शिष्य के पास तो नहीं पहुंच पाया, एक खंभे से मस्तक के बल टकरा गया। सिर फूट गया और उसी क्षण वह मृत्यु का ग्रास बन गया। मरकर वह ज्योतिष्क देव हुआ। फिर वहाँ से च्यवकर दृष्टि-विष सर्प की योनि में जन्मा। उस योनि में जातिस्मरण ज्ञान से उसे अपने पूर्व जन्मों का पता चला तो वह घोर पश्चात्ताप से भर गया और फिर बिल में ही रहने लगा, यह विचारकर कि मेरी दृष्टि के विष से किसी प्राणी का घात न हो जाये।
उन्हीं दिनों समीप के राज्य में एक राजकुमार सर्प के काटने पर मर गया। राजा ने दुःख और क्रोध में भरकर कई सपेरों को बुलाया तथा राज्यभर के सर्यों को पकड़कर मारने की आज्ञा दे दी। एक सपेरा उस दृष्टि-विष सर्प के बिल पर भी जा पहुँचा। उसने सर्प को बाहर निकालने के लिए कोई दवा बिल पर छिड़क दी। दवा के प्रभाव से उसे निकलना ही था किन्तु यह सोचकर