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[ नन्दीसूत्र
सम्यग्दृष्टि होता है तो वह ज्ञान कहलाता है और यदि उसका स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है तो वह अज्ञान कहलाता है। सम्यक्दृष्टि का ज्ञान आत्मोत्थान और दूसरों की उन्नति में प्रवृत्त होता है तथा मिथ्यादृष्टि का श्रुतज्ञान आत्मपतन के साथ पर की अवनति का कारण बनता है । सम्यकदृष्टि मिथ्या श्रुत को भी अपने श्रुतज्ञान के द्वारा सम्यक् श्रुत में परिवर्तित कर लेता है तथा मिथ्यादृष्टि सम्यक् श्रुत को भी मिथ्याश्रुत में बदल लेता है ।
सारांश यह है कि ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति, आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति एवं निर्वाण पद की प्राप्ति करना है । सम्यग्दृष्टि जीव की बुद्धि और उसका शब्दज्ञान, दोनों ही मार्गदर्शक होते हैं। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि की मति और शब्दज्ञान दोनों ही विवाद, विकथा एवं पतन का कारण बनते हुए जीव को पथभ्रष्ट करते हैं, साथ ही दूसरों के लिये भी अहितकर बन जाते हैं ।
कहा जा सकता है कि जब मतिज्ञान और मति- अज्ञान दोनों ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, तब दोनों में सम्यक्, मिथ्या का भेद किस कारण से होता है ? उत्तर यह है कि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ ज्ञान मिथ्यात्त्वमोहनीय के उदय से मिथ्या बन जाता है । आभिनिबोधिक ज्ञान के दो भेद
४७ से किं तं आभिणिबोहियनाणं ?
आभिनिबोहियनाणं दुविहं पण्णत्तं, जहा— सुयनिस्सियं च अस्सुयनिस्सियं च ।
तं जहा
से कि तं असुयनिस्सियं ? असुयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, उप्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया ।
बुद्धी चउव्विहा बुत्ता, पंचमा नोवलब्भ ॥
भगवन्! वह आभिनिबोधिक ज्ञान किस प्रकार का है?
उत्तर-आभिनिबोधिकज्ञान—– मतिज्ञान दो प्रकार का है, जैसे – (१) श्रुतनिश्रित और (२)
अश्रुतनिश्रित ।
प्रश्न- अश्रुतनिश्रित कितने प्रकार का है?
उत्तर—अश्रुतनिश्रित चार प्रकार का है । यथा
( १ ) औत्पत्तिकी— क्षयोपशम भाव के कारण, शास्त्र अभ्यास के बिना ही सहसा जिसकी उत्पत्ति हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं ।
( २ ) वैनयिकी— गुरु आदि की विनय - भक्ति से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है ।
(३) कर्मजा - शिल्पादि के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा होती है।
(४) पारिणामिकी— चिरकाल तक पूर्वापर पर्यालोचन से अथवा उम्र के परिपाक से जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं ।