________________
७४]
[नन्दीसूत्र के द्वारा सूत्रबद्ध किये गए हैं। गणधरों को जो श्रुतज्ञान हुआ, वह भगवान् के वचनयोग रूप द्रव्यश्रुत से हुआ है। इस प्रकार सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्षज्ञान का प्रकरण समाप्त हुआ।
___ परोक्षज्ञान ४५–से किं तं परोक्खनाणं ?
परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा आभिणिबोहिअनाणपरोक्खं च, सुअनाणपरोक्खं च।
जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं।
दोऽवि एयाई अण्णमण्णमणुगयाइं तहवि पुण इत्थ आयरिआ नाणत्तं पण्णवयंतिअभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियनाणं, सुणेइ त्ति सुअं, मइपुव्वं जेण सुअं, न मई सुअपुव्विआ।
प्रश्न—वह परोक्षज्ञान कितने प्रकार का है? उत्तर—परोक्षज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादित किया गया है, यथा
आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान। जहाँ आभिनिबोधिकज्ञान है वहाँ पर श्रुतज्ञान भी होता है। जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान भी होता है।
ये दोनों ही अन्योन्य अनुगत—एक दूसरे के साथ रहने वाले हैं। परस्पर अनुगत होने पर भी आचार्य इन दोनों में परस्पर भेद प्रतिपादन करते हैं- जो सन्मुख आए हुए पदार्थों को प्रमाणपूर्वक अभिगत करता है वह आभिनिबोधिकज्ञान है, किन्तु जो सुना जाता है वह श्रुतज्ञान है, जो कि श्रवण का विषय है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है किन्तु मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता।
विवेचन—जो सन्मुख आए हुए पदार्थों को इन्द्रिय और मन के द्वारा जानता है, उस ज्ञानविशेष को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। शब्द सुनकर वाच्य पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह ज्ञानविशेष श्रुतज्ञान कहलाता है। इन दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। अतः दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। जैसे सूर्य और प्रकाश, इनमें से एक जहाँ होगा, दूसरा भी अनिवार्य रूप से पाया जायेगा।
"मइपुव्वं जेण सुयं, न मई सुअपुब्विया।" श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है किन्तु श्रुतपूर्विका मति नहीं होती। जैसे वस्त्र में ताना बाना साथ ही होता है किन्तु फिर भी ताना पहले तन जाने के बाद ही बाना काम देता है। यद्यपि व्यवहार में यही कहा जाता है कि जहां ताना होता है वहाँ बाना रहता है और जहाँ बाना है वहाँ ताना भी है। ऐसा नहीं कहा जाता कि ताना पहले तना और बाना बाद में डाला गया। तात्पर्य यह है कि लब्धि