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ज्ञान के पांच प्रकार ]
विवेचन प्रस्तुत गाथा में केवलज्ञान का उपसंहार किया गया है और उसका आन्तरिक स्वरूप भी बताया है। पांच विशेषणों के द्वारा सूत्रकार ने इसके स्वरूप को स्पष्ट किया है। वे निम्न हैं
(१) सव्वदव्व - परिणाम-भावविण्णत्तिकारणं— सर्वद्रव्यों को, उनकी पर्यायों को तथा औदयिक आदि भावों को जानने का हेतु है ।
(२) अनंतं-वह अनन्त है क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं तथा ज्ञान उससे भी महान् है । (३) सासयं सादि - अनन्त होने से केवलज्ञान शाश्वत है।
(४) अप्पडिवाई – यह ज्ञान अप्रतिपाति अर्थात् कभी भी गिरने वाला नहीं है ।
(५) एगविहं— सब प्रकार की तरतमता एवं विसदृशता से रहित तथा सदाकाल व सर्वदेश में एक समान प्रकाश करने वाला व उपर्युक्त पंच- विशेषणों सहित यह केवलज्ञान एक
है ।
वाग्योग और श्रुत
४४. केवलनाणेणऽत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोग्गे ।
भाइ तित्थयरो, वइजोगसुअं हवइ सेसं ॥ सेत्तं केवलनाणं, से त्तं नोइन्दियपच्चक्खं ।
केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर उनमें जो पदार्थ वर्णन करने योग्य होते हैं, अर्थात् जिन्हें वाणी द्वारा कहा जा सकता है, उन्हें तीर्थंकर देव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं । वह उनका वचनयोग होता है अर्थात् वह अप्रधान द्रव्यश्रुत है । यहाँ "शेष" का अर्थ 44 'अप्रधान" है।
इस प्रकार केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष का प्रकरण भी समाप्त
हुआ।
विवेचन — स्पष्ट है कि तीर्थंकर भगवान् जितना केवलज्ञान से जानते हैं, उसमें से जितना कथनीय है उसी का प्रतिपादन करते हैं। सभी पदार्थों का कहना उनकी शक्ति से भी परे है, क्योंकि पदार्थ अनन्तानन्त हैं और आयुष्य परिमित समय का होता है। इसके अतिरिक्त बहुत-से सूक्ष्म अर्थ ऐसे हैं जो वचन के अगोचर हैं । इसलिये प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही वे कह सकते हैं।
केवलज्ञानी जो प्रवचन करते हैं वह उनका श्रुतज्ञान नहीं, अपितु भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से करते हैं। उनका वह प्रवचेन वाग्योग - द्रव्यश्रुत कहलाता है क्योंकि सुनने वालों के लिए वह द्रव्यश्रुत, भावश्रुत का कारण बन जाता है ।
इससे सिद्ध होता है कि तीर्थंकर भगवान् का वचनयोग द्रव्यश्रुत है, भावश्रुत नहीं। वह . केवलज्ञान - पूर्वक होता है । वर्तमान काल में जो आगम हैं, वे भावश्रुतपूर्वक हैं, क्योंकि वे गणधरों