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परिशिष्ट-१ : कतिपय सूक्तियाँ/६४७.
इस संसार में प्राणियों को चार परम अंग (उत्तम संयोग) अत्यन्त दुर्लभ हैं-१. मनुष्यता, २. धर्मश्रवण, ३. सम्यक् धर्मश्रद्धा, ४. संयम में पुरुषार्थ ।
सद्धा परमदुल्लहा॥३/९॥ धर्म में श्रद्धा परम दुर्लभ है।
सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई॥३/१२॥ सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म टिकता है।
___ असंखयं जीविय मा पमायए।।४/१॥ जीवन का धागा टूटने पर पुनः जुड़ नहीं सकता—वह असंस्कृत है, इसलिए प्रमाद मत करो।
वेराणुबद्धा नरयं उर्वति॥४/२॥ जो वैर की परम्परा को लम्बे किये रहते हैं, वे नरक प्राप्त करते हैं।
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि।।४/३॥ कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है।
सकम्मुणा किच्चइ पावकारी।।४।३॥ पापात्मा अपने ही कर्मों से पीडित होता है।
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था।।४/५॥ प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं कर सकता, न इस लोक में न परलोक में।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते॥४/६॥ समय भयंकर है और शरीर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण हो रहा है। अतः भारंड पक्षी की तरह सदा सावधान होकर विचरण करना चाहिए।
सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी ॥४/७॥ प्रबुद्ध साधक सोये हुए (प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृत अप्रमत्त रहे।
छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं॥४/८॥ कामनाओं के निरोध से मुक्ति प्राप्त होती है।
कंखे गुणे जाव सरीरभेओ॥४/१३॥ जब तक जीवन है सद्गुणों की आराधना करते रहना चाहिए।
चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं।
एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परियागयं ॥५/२१॥ चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कन्था और शिरोमुण्डन—यह सभी उपक्रम आचारहीन साधक की (दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकते।
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिवं॥५/२२॥ भिक्षु हो या गृहस्थ, जो सुव्रती है वह देवगति प्राप्त करता है।
___ गिहिवासे वि सुव्वए। ५/२४॥ धर्मशिक्षासंपन्न गृहस्थ गृहवास में भी सुव्रती है।