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________________ -उत्तराध्ययन सूत्र/६४६ - वरं में अप्प दंती, संजमेण तवेण य। माई परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि बहेहिं य॥१/१६॥ दूसरे वध और बन्धन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपना दमन कर लू। हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो ॥१/१८॥ प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दर्बुद्धि शिष्य को वे ही शिक्षाएँ बुरी लगती हैं। काले कालं समायरे॥१॥३१॥ समयोचित कर्त्तव्य समय पर ही करना चाहिए। रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए॥१/३७॥ विनीत बुद्धिमान् शिष्यों को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है जिस प्रकार अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुड़सवार। अप्पाणं पिन कोवए॥१॥४०॥ अपने आप पर कभी क्रोध न करें। न सिया तोत्तगवेसए॥१/४०॥ दूसरों के छलछिद्र नहीं देखना चाहिए। नच्चा नमइ मेहावी॥१/४५॥ बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त करके नम्र हो जाता है। मन्ने असणपाणस्स ॥२/३॥ खाने-पीने की मात्रा-मर्यादा का ज्ञान होना चाहिए। अदीणमणसो चरे॥२/३॥ अदीनभाव से जीवनयापन करना चाहिए। न य वित्तासए परं ॥२/२०॥ किसी भी प्राणी को त्रास नहीं पहुँचाना चाहिए। संकाभीओ न गच्छेज्जा॥२/२१॥ जीवन में शंकाओं से ग्रस्त-भीत होकर मत चलो। नस्थि जीवस्स नासोत्ति ॥२/२७॥ आत्मा का कभी नाश नहीं होता। __अजेवाहं न लब्भामो, अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो त न तज्जए॥२/३१॥ 'आज नहीं मिला तो क्या हुआ, कल मिल जाएगा'-जो ऐसा विचार कर लेता है उसे अलाभ पीडित नहीं करता। चत्तारि परमंगा,णि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥३/१॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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