SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 743
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४४ उत्तराध्ययनसूत्र अनुबद्धरोष विग्रह आदि आसुरी भावना के प्रकारों का समावेश हो जाता है। सम्मोहा भावना- मोह (मिथ्यात्वमोह) वश उन्मार्ग में विश्वास, उपदेश, मार्ग-दोष या शरीरादि पर मोह रखना सम्मोहा (मोही) भावना है। सम्मोहा भावना के हेतुओं में यहाँ गा० २६७ में शस्त्रग्रहणादि पांच प्रकार या कारण बताए हैं, जबकि प्रवचनसारोद्धार और मूलाराधना में अन्य प्रकार बताए गए हैं। इन दोनों में उन्मार्गदेशना, मार्गदूषण (मार्ग और दूषण) एवं मार्गविप्रतिप्रति, ये तीन प्रकार तो समान हैं, शेष दो - मोह और मोहजनन, ये दो 'मूलाराधना' में नहीं हैं। शस्त्रग्रहण आदि कार्यों से उन्मार्ग की प्राप्ति और मार्ग की हानि होती है, इसलिए इसे सम्मोहा भावना कहा गया है। मार्गविप्रतिपत्ति का अर्थ है-सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग नहीं, ऐसा मानना या इनके प्रतिकूल आचरण करना। मोह का अर्थ है-गूढतम तत्त्वों में मूढ हो जाना या चारित्रशून्य तीर्थिकों का आडम्बर एवं वैभव देखकर ललचाना। मोहजनना-कपटवश अन्य लोगों में मोह उत्पन्न करना। उपसंहार २६८. इह पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए। ___ छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए॥ -त्ति बेमि [२६८] इस प्रकार भवसिद्धिक (-भव्य) जीवों को अभिप्रेत (सम्मत) छत्तीस उत्तराध्ययनों (उत्तम अध्यायों) को प्रकट करके बुद्ध ( समग्र पदार्थों के ज्ञाता) ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त —ऐसा मैं कहता हूँ। हुए। ॥जीवाजीवविभक्ति : छत्तीसवां अध्ययन समाप्त ॥ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र समाप्त। १. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३७० (ख) अणुबंध-रोस-विग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी। णिक्किव-णिरणुतावी, आसुरिअंभावणं कुणदि॥-मूलाराधना ३/१८३ (ग) सइविग्गहसीलत्तं संसत्ततवो निमित्तकहणं च। निक्किवया वि अवरा, पंचमगं निरणुकंपत्तं ।।-प्रवचनसारोद्धार, गा०६४५ (घ) बृहद्वृत्ति पत्र ७११ २. (क) संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात, अनेन चोन्मार्गप्रतिपत्त्या, मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता तथा चार्थतो मोहीभावनोक्ता। - बृहद्वृत्ति, पत्र ७११ (ख) उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गविपडिवणी य। मोहेण य मोहित्तो सम्मोहं भावणं कुणई॥ -मूलाराधना ३/१८४ (ग) उमग्गदेसणा मग्गदूसणं मग्गविपडिवत्ती य। मोहो य मोहजणणं एवं स हवइ पंचविहा ।। -प्रवचनसारोद्धार, गा. ६४६ प्र. सा.वृत्ति, पत्र १८३. 0000000
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy