SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 742
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति कान्दर्पी भावना — कन्दर्प के बृहद्वृत्तिकार ने पांच लक्षण बतलाए हैं - (१) अट्टाहासपूर्वक हँसना, (२) गुरु आदि के साथ व्यंग्य में या निष्ठुर वक्रोक्तिपूर्वक बोलना, (३) कामकथा करना, (४) काम का उपदेश देना और (५) काम की प्रशंसा करना । यह कन्दर्प से जनित भावना कान्दर्पी भावना है। कौत्कुच्य भावना का अर्थ है— कायकौत्कुच्य । (भौंह, आँख, मुंह आदि अंगों को इस प्रकार बनाना, जिससे दूसरे हँस पड़ें और वाक्कौत्कुच्य— विविध जीव-जन्तुओं की बोली बोलना, सीटी बजाना जिससे दूसरे लोगों को हँसी आ जाए। आभियोगी भावना — अभियोग का अर्थ है— मंत्र, तंत्र, चूर्ण, भस्म आदि का प्रयोग करना । प्रस्तुत गा० २६४ में आभियोगी भावना के तीन हेतुओं या तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है— (१) मंत्र, (२) योग और (३) भूतिकर्म। कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ ये ही प्रकार मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में बताए गए हैं। योग के बदले वहाँ 'कौतुक' बताया गया है तथा प्रश्न ( दूसरों के लाभालाभ सम्बन्धी प्रश्न का समाधान करना)। प्रश्नाप्रश्न ( स्वप्न में विद्या द्वारा कथित शुभाशुभ वृत्तान्त दूसरों को बताना ) तथा निमित्त — प्रयोग, इन तीनों का समावेश 'निमित्त' में हो जाता है । २ किल्विषिकी भावना — किल्विष का यहाँ अर्थ है दोष— केवली — संघ, श्रुत (ज्ञान) धर्माचार्य एवं सर्वसाधुओं की निन्दा चुगली या वंचना या ठगी करना, अवगुण देखना और उनका ढिंढोरा पीटना आदि सभी चेष्टाएँ किल्विषिकी की भावना के रूप हैं। इन्हें ही इस भावना के प्रकार कहा गया है । ३ आसुरी भावना — जो असुरों (परामा धार्मिक देवों) की तरह क्रूरता, उग्र क्रोध, कठोरता एवं कलह आदि से ओतप्रोत हो, उसे आसुरी भावना कहा जा सकता है। आसुरी भावना के प्रस्तुत गा० २६६ में संक्षेप करके केवल दो ही हेतु या प्रकार बताए गए हैं; जबकि मूलाराधना एवं प्रवचनसारोद्धार में अनुबद्ध रोषप्रसर एवं निमित्तप्रतिसेवन, इन दो के अतिरिक्त निष्कृपता, निरनुपात तथा संसक्त तप, ये तीन कारण या प्रकार बताये | अनुबद्धरोषप्रसर के बृहद्वृत्तिकार ने चार अर्थ बताए हैं - ( १ ) निरन्तर क्रोध बढ़ाना, (२) सदैव विरोध करते रहना, (३) कलह आदि हो जाने पर भी पश्चाताप न करना, दूसरे द्वारा क्षमायाचना कर लेने पर भी प्रसन्न न होना । अतः इसी शब्द 'अन्तगत मूलाराधना में बताए गए निष्कृपता, निरनुताप ६४३ १. (क) कन्दर्प — अट्टहासहसनम्, अनिभृतालापश्च गुर्वादिनाऽपि सह निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च कन्दर्पः । - बृहद्वृत्ति, पत्र ७०९ २. (ख) प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र १८० (ग) मूलाराधना ३९८ पृ. वृत्ति (घ) कौनुच्यं द्विधा कायकौक्रुच्यंवाक् कौक्रुच्यं च । —बृहद्वृत्ति पत्र ७०९ (क) उत्तरा० गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र, ३७० (ख) मंताभिओगकोदुग भूदियम्मं पउंजदे जो हु । इड्रिससादहेतुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥ -मूलाराधना ३/१८२ (ग) कोउय - भूइकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसिणेहिं । तह य निमित्तेणं चिय पंचवियप्पा भवे सा य ॥ - प्रवचनसारोद्धार गा. ६४४ (ङ) प्रवचनसारोद्धा वृत्ति, पत्र १८१ - १८२ (घ) बृहद्वृत्ति पत्र ७१० ३. (क) उत्तरा गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३७० (ख) मूलाराधना ३/१८१ (ग) प्रवचनसारोद्धार गा. ६४३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy