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________________ समीक्षात्मक अध्ययन/७३ है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या ओज उत्पन्न हुआ है.......तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नहीं, किन्तु उसके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है........प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो, चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित हैं.....उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधना रूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं।"२६१ जैन तीर्थंकरों के जीवन का अध्ययन करने से स्पष्ट है-वे तप साधना के महान् पुरस्कर्ता थे। श्रमण भगवान् महावीर साधना-काल के साढ़े बारह वर्ष में लगभग ग्यारह वर्ष निराहार रहे। उनका सम्पूर्ण साधनाकाल आत्मचिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग में व्यतीत हुआ। उनका जीवन तप की जीती-जागती प्रेरणा है। जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है। आत्मा का शुद्धिकरण है। तप का प्रयोजन है—प्रयासपूर्वक कर्मपुद्गलों को आत्मा से अलग-थलग कर विशुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करना। इसलिए भगवान् महावीर ने कहा-तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है२६२, आबद्ध कर्मों का क्षय करने की पद्धति है ।२६३ तप से पाप कर्मों को नष्ट किया जाता है। तप कर्म-निर्जरण का मुख्य साधन है। किन्तु तप केवल कायक्लेश या उपवास ही नहीं, स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सभी तप के विभाग हैं। जैनदृष्टि से तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार हैं। बाह्य तप के अनशन, अवमोदारिका, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, कायक्लेश, और प्रतिसंलीनता ये छह प्रकार हैं। इनके धारण आचरण से देहाध्यास नष्ट होता है। देह की आसक्ति साधना का महान विघ्न है। देहासक्ति से विलासिता और प्रमाद समुत्पन्न होता है, इसलिए जैन श्रमण का विशेषण 'वोसट्ठ-चत्तदेहे" दिया गया है। बाह्म तप स्थूल है, वह बाहर से दिखलाई देता है जबकि आभ्यन्तर तप को सामान्य जनता तप के रूप में नहीं जानती। तथापि उसमें तप का महत्त्वपूर्ण एवं उच्च पक्ष निहित है। उसके भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्वान और व्युत्सर्ग ये छह प्रकार हैं जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते चले गये हैं। वैदिक परम्परा में भी तप की महत्ता रही है। वैदिक ऋषियों का आघोष है-तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए।२६४ तप से ही वेद उत्पन्न हुए२६५, तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जाती है,२६६ तप से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाती है और तप से ही ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है।२६७ तप से ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है।२६८ मनु ने तो कहा है-तप से ही ऋषिगण त्रैलोक्य में चराचर प्राणियों को देखते हैं।२६९ इस विश्व में जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर है, वह सब तपस्या से साध्य है, तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है।२७० महापातकी तथा निम्न आचरण करने वाले भी तप से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते हैं।२७१ बौद्ध साधना-पद्धति में भी तप का उल्लेख हुआ है, पर बौद्ध धर्मावलम्बी मध्यममार्गी होने से जैन और वैदिक परम्परा की तरह कठोर आचार के अर्थ में वहाँ तप शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। वहाँ तप का अर्थ हैचित्तशुद्धि का निरन्तर अभ्यास करना! बुद्ध ने कहा-तप, ब्रह्मचर्य आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार ये उत्तम मंगल है। २७२ दिट्ठठिविजसुत्त में कहा—किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं तो उसे अवश्य करना चाहिए।२७३ मज्झिमनिकाय-महासिंहनादसुत्त में बुद्ध सारीपुत्त से अपनी उग्र तपस्या का विस्तृत वर्णन करते हैं।२७४ सुत्तनिपात में बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् भी बौद्ध भिक्षुओं में धुत्तंग अर्थात् जंगलों में रहकर विविध प्रकार की तपस्याएं करने आदि का महत्त्व था। विसुद्धिमग्ग २६१. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृष्ठ ७१-७२ २६२. उत्तराध्ययन २८/३५ २६३. उत्तराध्ययन २९/ २७ २६४. ऋग्वेद १०/ १९०/ १ २६५. मनुस्मृति ११/२४३ २६६. मुण्डकोपनिषद् १/१/८ २६७. अथर्ववेद ११/ ३/५/१९ २६८. शत्पथब्राह्मण ३/४/४/२७ २६९. मनुस्मृति ११/ २३७ २७०. मनुस्मृति ११/ २३८ २७१. मनुस्मृति ११/ २३९ २७२. सुत्तनिपात १६/ १० २७३. अंगुत्तरनिकाय दिट्ठठिविजसुत्त २७४. मज्किमनिकाय, महासिंहनादसुत्त
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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