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उत्तराध्ययन / ७०
ने उसके चार अर्थ किये हैं- (१) समता का आचार (२) सम्यक् आचार (३) सम आधार ( ४ ) समान आचार । २४७
श्रमण जीवन में दिन-रात में जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती है, वे सभी समाचारी के अन्तर्गत हैं। समाचारी संघीय जीवन जीने की श्रेष्ठतम कला है। समाचारी से परस्पर एकता की भावना विकसित होती है, जिससे संघ को बल प्राप्त होता है।
प्रस्तुत अध्ययन में दशविध ओघ - समाचारी का निरूपण हुआ है। इस सम्बन्ध में हमने विस्तार के साथ " जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप" ग्रन्थ में निरूपण किया है। १४८ विशेष जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं।
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अनुशासनहीनता का प्रतीक : अविनय
सत्ताईसवें अध्ययन में दुष्ट बैल की उद्दण्डता के माध्यम से अविनीत शिष्य का चित्रण किया गया है। संघ-व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। विनय, अनुशासन का अंग है तो अविनय अनुशासनहीनता का प्रतीक है। जो साधक अनुशासन की उपेक्षा करता है वह अपने जीवन को महान् नहीं बना सकता गर्गगोत्रीय गार्ग्य मुनि एक विशिष्ट आचार्य थे, योग्य गुरु थे किन्तु उनके शिष्य उद्दण्ड, अविनीत और स्वच्छन्द थे । उन शिष्यों के अभद्र व्यवहार से समत्व साधना में विघ्न उपस्थित होता हुआ देखकर आचार्य गार्ग्य उन्हें छोड़कर एकाकी चल दिये। अनुशासनहीन अविनीत शिष्य दुष्ट बैल की भाँति होता है जो गाड़ी को तोड़ देता है और स्वामी को कष्ट पहुँचाता है। इसी तरह अविनीत शिष्य आचार्य और गुरुजनों को कष्टदायक होता है। उत्तराध्ययन निर्युक्ति में अविनीत शिष्य के लिए दंशमशक, जलोका, वृश्चिक प्रभृति विविध उपमाओं से अलंकृत किया है। इस अध्ययन में जो वर्णन है वह प्रथम अध्ययन 'विनयश्रुत' का ही पूरक है।
प्रस्तुत अध्ययन की निम्न गाथा की तुलना बौद्ध ग्रन्थ की थेरगाथा से की जा सकती है
"खलुंका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा । जोइया धम्मजाणम्मि भज्जन्ति धिइदुब्बला ॥”
तुलना कीजिए
"ते तथा सिक्खित्ता बाला, अज्जमज्जमगारवा । नादयिस्सन्ति उपज्झाये, खलुंको विय सारथिं ॥"
२४८. " जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप" ग्रन्थ २४९. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।'
मोक्षमार्ग एक परिशीलन
अट्ठाईसवें अध्ययन में मोक्षमार्गगति का निरूपण हुआ है। मोक्ष प्राप्य है और उसकी प्राप्ति का उपाय मार्ग है । प्राप्ति का उपाय जब तक नहीं मिलता तब तक प्राप्य प्राप्त नहीं होता । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये मोक्षप्राप्ति के साधन हैं। इन साधनों की परिपूर्णता ही मोक्ष है। जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके परवर्ती साहित्य में त्रिविध साधना का मार्ग प्रतिपादित किया है। आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। २४९ आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार और नियमसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिध्युपाय में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध साधना मार्ग का विधान किया है। बौद्धदर्शन में भी शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान किया गया है। गीता में भी ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
ले. देवेन्द्र पृष्ठ ८९९-११०
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १, सूत्र १
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-[उत्तराध्ययन २७/८]
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- [ थेरगाथा ९७९]