________________
छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
६०५ [६०] जिनवरों ने कहा है वह पृथ्वी अर्जुन-(अर्थात्-)श्वेतस्वर्णमयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान (उलटे) छत्र के आकार की है।
६१. संखंक-कुन्दसंकासा पण्डुरा निम्मला सुहा।
सीयाए जोयणे तत्तो लोयन्तो उ वियाहिओ।। [६१] वह शंख, अंकरत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत है, निर्मल और शुभ है। इस सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त कहा गया है।
६२. जोयणस्स उ जो तस्स कोसो उवरिमो भवे।
तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भवे।। [६२] उस योजन के ऊपर का जो कोस है; उस, कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना (अवस्थिति) होती है। (अर्थात्-३३३ धनुष्य ३२ अंगुल प्रमाण सिद्धस्थान है।)
६३. तत्थ सिद्धा महाभागा लोयग्गम्मि पइट्ठिया।
__ भवप्पवंचउम्मुक्का सिद्धिं वरगइं गया।। [६३] भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग, एवं परमगति —'सिद्धि' को प्राप्त सिद्ध वहाँ -लोक के अग्रभाग (उक्त कोस के छठे भाग) में विराजमान हैं।
६४. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ।
तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे।। (६४) अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊँचाई होती है उससे त्रिभाग-न्यून सिद्धों की अवगाहना होती है। (अर्थात्-शरीर के अवयवों के अन्तराल की पूर्ति करने में तीसरा भाग न्यून होने से २/३ भाग की अवगाहना रह जाती है।)
६५. एगत्तेण साईया अपजवसिया वि य।
पुहुत्तेण अणाईया अपजवसिया वि य॥ [६५] एक (मुक्त जीव) की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त है और बहुत-से (मुक्त जीवों) की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं।
६६. अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसन्निया।
अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ॥ [६६] वे अरूपी हैं, जीवघन (सघन) हैं, ज्ञानदर्शन से सम्पन्न हैं। जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है।
६७. लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसन्निया।
संसारपारनित्थिन्ना सिद्धिं वरगई गया। [६७] ज्ञान और दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए, सिद्धि नामक श्रेष्ठगति को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं।
विवेचन—सिद्ध-गाथा ४९ से ६७ तक में सिद्ध जीवों के प्रकार, एक समय में सिद्धत्वप्राप्ति