________________
छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
६०३
विवेचन — जीव के लक्षण – (१) जो जीता है— प्राण धारण करता है, वह जीव है, (२) जो चैतन्यवान् आत्मा है, वह जीव है, वह उपयोगलक्षित, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त और कर्मसंयुक्त है। (३) जो दस प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणों द्वारा जीता है, जीया था, व जीएगा, इस त्रैकालिक जीवन गुण वाले को 'जीव' कहते हैं । (४) जीव का लक्षण चेतना या उपयोग है।
इन लक्षणों में शब्दभेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है। ये संसारस्थ जीव की मुख्यता से कहे गए हैं यद्यपि जीवों में सिद्ध भगवान् (मुक्त जीव) भी सम्मिलित हैं किन्तु सिद्धों में शरीर और दस प्राण नहीं हैं । तथापि भूतपूर्व गति न्याय से सिद्धों में जीवत्व कहना औपचारिक है। दूसरी तरह से — सिद्धों में ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, ये ४ भावप्राण होने से उनमें भी जीवत्व घटित होता है । २
संसारस्थ और मुक्त सिद्ध : स्वरूप — जो प्राणी चतुर्गतिरूप या कर्मों के कारण जन्म-मरणरूप संसार में स्थित हैं, वे संसारी या संसारस्थ कहलाते हैं। जिनमें जन्म-मरण, कर्म, कर्मबीज ( रागद्वेष ), कर्मफलस्वरूप चार गति, शरीर आदि नहीं होते, मुक्त होकर सिद्ध गति में विराजते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ।३
सिद्धजीव-निरूपण
४९. इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य ।।
[४९] कोई स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं, कोई पुरुषलिंगसिद्ध, कोई नपुंसकलिंगसिद्ध और कोई स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध तथा गृहस्थिलिंगसिद्ध होते हैं।
५०. उक्कोसोगाहणाए य जहन्नमज्झिमाइ य । उड्डुं अहे य तिरियं च समुद्दम्मि जलम्मि य ।।
[५०] उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में अथवा तिर्यक् लोक में, एवं समुद्र अथवा अन्य जलाशय में (जीव सिद्ध होते हैं ।)
५१. दस चेव नपुंसेसु वीसं इत्थियासु य ।
पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई ||
[५१] एक समय में (अधिक से अधिक) नपुंसकों में से दस, स्त्रियों में से बीस और पुरुषों में से एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं ।
१. (क) जीवति - प्राणान् धारयतीति जीवः ।
(ख) जीवोत्ति हवदि चेदा, उवओग-विसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ।
— पंचास्तिकाय गा. २७
- प्रवचनासार १४६
(ग) पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि, जो हि जीविदो पुव्वं । सो जीवो.... । (घ) 'तत्र चेतनालक्षणो जीवः । ' सर्वार्थसिद्धि १/४/१४ (ङ) उपयोगो लक्षणम् ।' – तत्त्वार्थ. २ / ८ २. तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धं जीवितपूर्वत्वात् । सम्प्रति न जीवन्ति सिद्धा, भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामौपचारिकं, मुख्यं चेष्यते ? नैष दोष:, भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनात् साम्प्रतिकमपि जीवत्वमस्ति । —राजवार्तिक १/४/७ ३. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र ३३९