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छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
६०१ ४४. संठाणओ भवे तंसे भइए से उ वण्णओ।
__ गन्धओ रसओ चेव भइए फासओ वि य।। [४४] जो पुद्गल संस्थान से त्रिकोण है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है।
४५. संठाणओ भवे चउरंसे भइए से उ वण्णओ।
गन्धओ रसओ चेव भइए फासओ वि य॥ [४५] जो पुद्गल संस्थान से चतुष्कोण है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है।
४६. जे आययसंठाणे भइए से उ वण्णओ।
गन्धओ रसओ चेव भइए फासओ वि य॥ [४६] जो पुद्गल संस्थान से आयत है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है।
४७. एसा अजीवविभत्ती समासेण वियाहिया।
इत्तो जीवविभत्तिं वुच्छामि अणुपुव्वसो।। [४७] यह संक्षेप से अजीवविभाग का निरूपण किया गया है। अब यहाँ से आगे जीव-विभाग का क्रमशः निरूपण करूँगा।
विवेचन-पुद्गल (रूपी अजीव) का लक्षण-तत्त्वार्थ० राजवार्तिक आदि के अनुसार पुद्गल में ४ लक्षण पाए जाते हैं- (१) भेद और संघात के अनुसार जो पूरण और गलन को प्राप्त हों, (२) पुरुष (-जीव) जिनको आहार, शरीर, विषय और इन्द्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें, अर्थात्-ग्रहण करें, (३) जो गलन-पूरण-स्वभाव सहित हैं, वे पुद्गल हैं। गुणों की अपेक्षा से—(४) स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले जो हों वे पुद्गल होते हैं। पुद्गल के ये जो साधारण धर्म (गुणात्मक लक्षण) हैं, इनमें संस्थान भी
एक है।
पुद्गल के भेद-पुद्गल के मूल दो भेद हैं-अणु (परमाणु) और स्कन्ध। स्कन्ध की अपेक्षा से देश और प्रदेश ये दो भेद और होते हैं। मूल पुद्गलद्रव्य परमाणु ही हैं। उसका दूसरा भाग नहीं होता, अतः वह निरंश होता है। दो परमाणुओं से मिल कर एकत्व-परिणतिरूप द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी आदि से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध तक होते हैं। पुद्गल के अनन्तस्कन्ध हैं। परमाणु जब स्कन्ध से जुड़ा रहता है, तब उसे प्रदेश कहते हैं और जब वह स्कन्ध से पृथक् (अलग) रहता है, तब परमाणु कहलाता है। यह १०वी, ११वीं गाथा का आशय है।
स्कन्धादि पुद्गल : द्रव्यादि की अपेक्षा से स्कन्धादि द्रव्य की अपेक्षा से पूर्वोक्त ४ प्रकार के हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से—लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं, काल की अपेक्षा से१. (क) भेदसंघाताभ्यां पूर्यन्ते गलन्ते चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामन्तर्भाव्यः पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः। (ख) पुमांसो जीवाः, तैः शरीराऽहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्ते इति पुद्गलाः।
-राजवार्तिक ४/१/२४-२६ (ग) गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः। -द्रव्यसंग्रहटीका १५/५०/ १२
(घ) 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला।' -तत्त्वार्थ. ५/२३ २. (क) 'अणवः स्कन्धाश्च।' -तत्त्वार्थ. ५/ २५ (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. ४७६-४७७