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________________ ५९६ उत्तराध्ययनसूत्र [८] धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित—अनन्त और सर्वकालस्थायी (नित्य) कहे गए हैं। ९. समए वि सन्तई पप्प एवमेवं वियाहिए। आएसं पप्प साईए सपज्जवसिए वि य॥ [९] काल भी प्रवाह (सन्तति) को अपेक्षा से इसी प्रकार (अनादि-अनन्त) है। आदेश से (-प्रतिनियत व्यक्तिरूप एक-एक समय की अपेक्षा से) सादि और सान्त है। विवेचन यद्यपि धर्मास्तिकाय आदि तीन अरूपी अजीव वास्तव में अखण्ड एक-एक द्रव्य हैं, तथापि उनके स्कन्ध, देश और प्रदेश के रूप में तीन-तीन भेद किये गए हैं। परमाणु, स्कन्ध, देश और प्रदेश : परिभाषा -पुद्गल के सबसे सूक्ष्म (छोटे) भाग को, जिसके फिर दो टुकड़े न हो सकें, 'परमाणु' कहते हैं। परमाण सूक्ष्म होता है और किसी एक वर्ण, गन्ध, रस तथा दो स्पर्शों से युक्त होता है। वे ही परमाणु जब एकत्र हो जाते हैं, तब 'स्कन्ध' कहलाते हैं। दो परमाणुओं से बनने वाले स्कन्ध को द्विप्रदेशी स्कन्ध कहते हैं । इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अनेक प्रदेशों से परिकल्पित, स्कन्धगत छोटे-बड़े नाना अंश 'देश' कहलाते हैं। जब तक वे स्कन्ध से संलग्न रहते हैं, तब तक 'देश' कहलाते हैं। अलग हो जाने के बाद वह स्वयं स्वतन्त्र स्कन्ध बन जाता है। स्कन्ध के उस छोटे-से छोटे अविभागी विभाग (अर्थात् - फिर भाग होने की कल्पना से रहित सर्वाधिक सूक्ष्म अंश) को प्रदेश कहते हैं। प्रदेश तब तक ही प्रदेश कहलाता है, जब तक वह स्कन्ध के साथ जुड़ा रहता है। अलग हो जाने के बाद वह 'परमाणु' कहलाता है। धर्मास्तिकाय आदि चार अस्तिकाय-धर्म, अधर्म आदि चार अस्तिकायों के स्कन्ध, देश तथा प्रदेश—ये तीन-तीन भेद होते हैं। केवल पुद्गलास्तिकाय के ही स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार भेद होते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश स्कन्धतः एक हैं। उनके देश और प्रदेश असंख्य हैं। असंख्य के असंख्य भेद होते हैं। लोकाकाश के असंख्य और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश होने से आकाश के कुल अनन्त प्रदेश हैं। धर्मास्तिकाय आदि के स्वरूप की चर्चा पहले की जा चुकी है। अद्धासमय : कालवाचक-काल शब्द वर्ण, प्रमाण, समय, मरण आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त होता है। अतः समयवाची काल शब्द का वर्ण-प्रमाणादि वाचक काल शब्द से पृथक् बोध कराने के लिए, उसके साथ, 'अद्धा' विशेषण जोड़ा गया है। अद्धाविशेषण से वह 'वर्तनालक्षण' काल द्रव्य का ही बोध कराता है। काल का सूर्य की गति से सम्बन्ध रहता है। अतः दिन, रात, मास, पक्ष आदि के रूप में अद्धाकाल अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्यक्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं। काल में देश-प्रदेश परिकल्पना सम्भव नहीं है; क्योंकि निश्चय दृष्टि से वह समय रूप होने से निर्विभाग है। अतः उसे स्कन्ध और अस्तिकाय भी नहीं माना है। अपरापरतोत्पत्तिरूप प्रवाहात्मक संतति की अपेक्षा से काल आदि-अनन्त है, किन्तु दिन-रात आदि प्रतिनियत व्यक्ति स्वरूप (विभाग) की अपेक्षा से सादि-सान्त है। १. (क) बृहद्वृत्ति, अ. रा, कोष भा. १, पृ. २०४ (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. ४७६ (ग) प्रज्ञापना पद ५ वृत्ति (घ) स्थानांग स्था. ४/१/२६४ वृत्ति, पत्र १९०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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