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पैंतीसवाँ अध्ययन : अनगारमार्गगति
५८९ के उपद्रव से रहित हो।
विविध स्थानों में निवास से लाभ-प्रस्तुत में कपाटयुक्त स्थान में रहने की अभिलाषा का निषेध साधु की उत्कृष्ट साधना, अगुप्तता और अपरिग्रहवृत्ति का द्योतक है। इसका एक फलितार्थ यह भी हो सकता है कि कपाट वाले स्थान में ही रहने की इच्छा न करे किन्तु अनायास ही, स्वाभाविक रूप से कपाट वाला स्थान मिल जाए तो निवास करना वर्जित नहीं है। श्मशान में निवास वैराग्य एवं अनित्यता की भावना जागृत करने हेतु उपयुक्त है। तरुतलनिवास से पेड़ के पत्तों को गिरते देख तथा वृक्ष में होने वाले परिवर्तन को देखकर जीवन की अनित्यता का भाव उत्पन्न होगा।
गृहकर्मसमारम्भनिषेध-गृहकर्मसमारम्भ से अनेक त्रस-स्थावर, स्थूल-सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है। अतः साधु मकान बनाने-बनवाने, लिपाने-पुतवाने आदि के चक्कर में न पड़े। गृहस्थ द्वारा बनाए हुए मकान में उसकी अनुज्ञा लेकर रहे। भोजन पकाने एवं पकवाने का निषेध
१०. तहेव भत्तपाणेसु पयण-पयावणेसु य।
___ पाणभूयदयट्ठाए न पये न पयावए॥ __ [१०] इसी प्रकार भक्त-पान पकाने और पकवाने में हिंसा होती है। अत: भिक्षु प्राणों और भूतों की दया के लिए न तो स्वयं पकाए और न दूसरे से पकवाए।
११. जल-धन्ननिस्सिया जीवा पुढवी-कट्ठनिस्सिया।
हम्मन्ति भत्तपाणेसु तम्हा भिक्खू न पायए॥ [११] भोजन और पान के पकाने-पकवाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ (ईन्धन) के आश्रित जीवों का वध होता है, अतः भिक्षु न पकवाए।
१२. विसप्पे सव्वओधारे बहुपाणविणासणे।
नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोई न दीवए॥ [१२] अग्नि के समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं है, वह अल्प होते हुए भी चारों ओर फैल जाने वाला, चारों ओर तीक्ष्ण धार वाला तथा बहुत-से प्राणियों का विनाशक है। अतः साधु अग्नि न जलाए।
विवेचन–पचन-पाचनक्रिया का निषेध–साधु के लिए पचन-पाचन क्रिया का निषेध इसलिए किया गया है कि इसमें अग्निकाय के जीवों तथा जल, अनाज, (वनस्पति) लकड़ी एवं पृथ्वी के आश्रित रहे हुए अनेक जीवों का वध होता है, अग्नि भी सजीव है। उसके दूर-दूर तक फैल जाने से अग्निकाय की, तथा उसके छहों दिशावर्ती अनेक त्रस-स्थावर जीवों की प्राणहानि होती है। १. (क) बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष, भा. १, पृ. २८० (ख) मज्झिमनिकाय, २/ ३/७ पृ. ३०७
(ग) विसुद्धिमग्गो भा. १, पृ.७३ से ७६ तक २-३.उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र ३३०