________________
बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान
विवेचन-ज्ञानादि की प्राप्ति-दूसरी गाथा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्राप्ति को मोक्षसुखप्राप्ति का हेतु बताया गया है क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से ज्ञान विशद एवं निर्मल होगा। उधर मति अज्ञानादि तथा मिथ्या श्रुत श्रवण, मिथ्यादृष्टिसंग के परित्याग आदि से एवं अज्ञान और मोह के परिहार से सम्यग्दर्शन प्रकट होगा। तीसरी ओर रागद्वेष तथा उसके परिवाररूप चारित्रमोहनीय का क्षय होने से सम्यक्चारित्र प्राप्त किया जाएगा, तो अवश्य ही एकान्तसुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होगी।
___ ज्ञानादि की प्राप्ति : कैसे एवं किनसे?—तीसरी गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानदर्शन चारित्र की प्राप्ति का उपाय गुरुवृद्धसेवा आदि है।
गुरु-विद्धसेवा : विशेषार्थ—यहा गुरु का अर्थ है-शास्त्र के यथार्थ प्रतिपादक और वृद्ध का अर्थ है—तीनों प्रकार के स्थविर। श्रुतस्थविर, पर्याय (बीसवर्ष की दीक्षापर्याय) से स्थविर और वयःस्थविर, यों तीन प्रकार के वृद्ध हैं। गुरुवृद्धसेवा से आशय है-गुरुकुलसेवा। क्योंकि गुरु और स्थविरों की सेवा में रहने से साधक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ दर्शन और चारित्र में भी स्थिर होता है।२
अज्ञानीजन-सम्पर्क से दूर रहे—यह इसलिए बताया है कि अज्ञानी जनों के सम्पर्क से सम्यक्ज्ञानादि तीनों ही विनष्ट हो जाते हैं, इसलिए यह महादोष का कारण है।
धृति : क्यों आवश्यक?—धैर्य के विना चारित्रपालन, सम्यग्दर्शन एवं परीषहसहन आदि नहीं हो सकता। तथा धृति का अर्थ चित्तसमाधि भी है, उसके विना ज्ञानादि की प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानादिप्राप्ति रूप समाधि के लिए कर्त्तव्य
४. आहारमिच्छे मियमेसणिजं सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं।
निकेयमिच्छेज विवेगजोग्गं समाहिकामे समणे तवस्सी॥ [४] समाधि की आकांक्षा रखने वाला तपस्वी श्रमण परिमित और एषणीय (निर्दोष) आहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थों को जानने में निपुण बुद्धिवाले सहायक (साथी) को खोजे तथा (स्त्री-पशु-नपुसंक से) विविक्त (रहित) एकान्त स्थान (में रहने) की इच्छा करे।
५. नवा लभेजा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा।
एक्को वि पावाइ विवजयन्तो विहरेज कामेसु असजमाणो॥ [५] यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुण वाला निपुण साथी न मिले तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा कामभोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे।
विवेचन-समाधि-समाधि द्रव्य और भाव उभयरूप है। द्रव्यसमाधि है—दूध, शक्कर आदि द्रव्यों का परस्पर एकमेक होकर, रहना; भावसमाधि है—ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का अबाधितरूप से १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२२ : ततश्चायमर्थ :-सम्यदर्शनज्ञानचारित्रै : एकान्तसौख्यं मोक्षं समुपैति । २. (क) गुरवो यथावच्छास्त्राभिधायकाः, वृद्धाश्च श्रुतपर्यायादिवृद्धाः। तेषां सेवा-पर्युपासना।
इयं च गुरुकुलवासोपलक्षणं, तत्र च सुप्राप्यान्येव ज्ञानादीनि। उक्तं च -
णाणस्य होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्तेय। -बृहवृत्ति, पत्र ६२३ ३. 'तत्संगस्याल्पीयसोऽपि महादोषनिबन्धनत्वेनाभिहितत्वात्।' -वही, पत्र ६२२ ४. चित्तस्वास्थ्यं विना ज्ञानादिलाभो न, इत्याह-धृतिश्च-चित्तस्वास्थ्य मनुद्विग्नवमित्यर्थः। -वही, पत्र ६२२