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बत्तीसइमं अज्झयणं : पमायट्ठाणं
बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमादस्थान सर्वदुःखमुक्ति के उपाय-कथन की प्रतिज्ञा
१. अच्चन्तकालस्स समूलगस्स सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो।
तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता सुणेह एगंतहियं हियत्थं॥ [१] मूल (कारणों) सहित समस्त अत्यन्त (-अनादि-) कालिक दुःखों से मुक्ति का जो उपाय है, उसे मैं कह रहा हूँ। एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है, उसे परिपूर्ण चित्त (की एकाग्रता) से सुनो।
विवेचन—अच्चंतकालस्स–जो अन्त का अतिक्रमण कर गया हो, वह अत्यन्त होता है। 'अन्त' दो होते हैं—आरम्भक्षण और अन्तिमक्षण। तात्पर्य यह है—जिस काल की आदि न हो, वैसा कालअनादि काल। यह दुःख का विशेषण है।
समूलगस्स—मूलसहित। दुःख का मूल है—कषाय, अविरति आदि। वृत्तिकार का अभिप्राय है कि दूसरे पक्ष में-दुःख का मूल राग और द्वेष है।
पडिपुण्णचित्ता—(१) प्रतिपूर्णचित्त होकर, अर्थात्-चित्त (मन) को दूसरे विषयों में न ले जा कर अखण्डित रख कर, अथवा (२) प्रतिपूर्णचिन्ता—इस विषय में पूर्ण चिन्तन वाले होकर। दुःखमुक्ति तथा सुखप्राप्ति का उपाय
२. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाण-मोहस्स विवजणाए।
रागस्स दोसस्स य संखएणं एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं॥ [२] सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से, (तथा) राग और द्वेष के सर्वथा क्षय से, जीव एकान्तसुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है।
३. तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा विवजणा बालजणस्स दूरा।
___ सज्झाय-एगन्तनिसेवणा य सुत्तऽत्थसंचिन्तणया धिई य॥ । [३] गुरुजनों और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी जनों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त-सेवन, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिन्तन करना और धैर्य रखना, यह उसका (ज्ञानादि प्राप्ति का) मार्ग (उपाय) है। १. अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो, वस्तुतश्च द्वावन्तौ–आरम्भक्षण: समाप्तिक्षणः। तत्रेह आरम्भलक्षणान्तः परिगृह्यते।
तथा चात्यन्त : अनादिः कालो यस्य सोऽत्यन्तस्तस्य। -बृहवृत्ति, पत्र ६२१ २. 'सह मूलेन-कषायविरतिरूपेण वर्तत इति समूलकः। उक्तं हि-मूलं संसारस्स हु हुंति कसाया अविरती य'
......अत्र च पक्षे मूलं रागद्वेषौ। -वही, पत्र ६२१ ३. 'प्रतिपूर्ण विषयान्तराऽगमनेनाखण्डितं चित्तं चिन्ता वा येषां ते प्रतिपूर्णचित्ता, प्रतिपूर्णचिन्ता वा।'—वही, पत्र ६२१