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________________ इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि ५३३ इसके अतिरिक्त निशीथ [आचारांग चूला (-चूड़ा) के रूप में अभिमत ] के तीन अध्ययन हैं(१) उद्घात, (२) अनुद्घात और (३) आरोपण । इस प्रकार ९ + १६ + ३ = २८ अध्ययन कुल मिला कर होते हैं । इन २८ अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का पालन करना और अनाचार से विरत होना साधु का परम कर्त्तव्य है । उनतीसवाँ और तीसवाँ बोल १९. पावसुयपसंगेसु मोहट्ठाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निच्छं से न अच्छइ मण्डले ॥ - [१९] पापश्रुत-प्रसंगों में और मोह - स्थानों (महामोहनीयकर्म के कारणों) में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता । विवेचन – पापश्रुत-प्रसंग २९ प्रकार के हैं – (१) भौम (भूमिकम्पादि बतानेवाला शास्त्र), (२) उत्पात (रुधिरवृष्टि, दिशाओं का लाल होना इत्यादि का शुभाशुभफलसूचक शास्त्र), (३) स्वजशास्त्र, (४) अन्तरिक्ष (विज्ञान), (५) अंगशास्त्र (६) स्वर - शास्त्र, (७) व्यंजनशास्त्र, (८) लक्षणशास्त्र, ये आठों ही सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से २४ शास्त्र हो जाते हैं । (२५) विकथानुयोग, (२६) विद्यानुयोग, (२७) मन्त्रानुयोग, (२८) योगानुयोग ( वशीकरणादि योग सूचक) और (२९) अन्यतीर्थिकानुयोग (अन्यतैर्थिक हिंसाप्रधान आचारशास्त्र) । इन २९ प्रकार के पापा श्रवजनक शास्त्रों का प्रयोग उत्सर्गमार्ग में न करना साधु का कर्त्तव्य है । २ महामोहनीय (मोह) के तीस स्थान- (१) त्रसजीवों को पानी में डुबा कर मारना, (२) त्रस जीवों को श्वास आदि रोक कर मारना, (३) त्रस जीवों को मकानादि में बंद करके धुंए से घोट कर मारना, (४) त्रस जीवों को मस्तक पर गीला चमड़ा आदि बांध कर मारना, (५) त्रस जीवों को मस्तक पर डंडे आदि से घातक प्रहार से मारना, (६) पथिकों को धोखा देकर लूटना, (७) गुप्त रीति से अनाचार - सेवन करना, (८) अपने द्वारा कृत महादोष का दूसरे पर आरोप ( कलंक) लगाना, (९) सभा में यथार्थ (सत्य) को जानबूझ कर छिपाना, मिश्रभाषा (सत्य जैसा झूठ बोलना । (१०) अपने अधिकारी (या राजा) को अधिकार और भोगसामग्री से वंचित करना, (११) बालब्रह्मचारी न होते हुए भी अपने को बालब्रह्मचारी कहना, (१२) ब्रह्मचारी न होते हुए भी ब्रह्मचारी होने का ढोंग रचना, (१३) आश्रयदाता का धन हड़पनाचुराना, (१४) कृत उपकार को न मान कर कृतघ्नता करना, उपकारी के भोगों का विच्छेद करना, (१५) पोषण देने वाले गृहपति या संघपति अथवा सेनापति प्रशास्ता की हत्या करना, (१६) राष्ट्रनेता, निगमनेता या प्रसिद्ध श्रेष्ठी की हत्या करना, (१७) जनता एवं समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष की हत्या करना, (१८) संयम के लिए तत्पर मुमुक्षु और दीक्षित साधु को संयमभ्रष्ट करना, (१९) अनन्तज्ञानी की निन्दा तथा सर्वज्ञता के प्रति अश्रद्धा करना, (२०) आचार्य उपाध्याय की सेवा-पूजा न करना, (२१) अहिंसादि मोक्षमार्ग की निन्दा करके जनता को विमुख करना, (२२) आचार्य और उपाध्याय की निन्दा करना, (२३) बहुश्रुत न होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत (पण्डित) कहलाना ( २४ ) तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१६ २. (क) समवायांग, समवाय २९ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६१७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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