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इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि
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विवेचन-राग-द्वेषरूप बन्धन-राग और द्वेष, ये दोनों बन्धन हैं, पापकर्मबन्ध के कारण हैं। इसलिए इन्हें पाप तथा पापकर्म में प्रवृत्ति कराने वाला कहा है। अत: चरणविधि के लिए साधक को रागद्वेष से निवृत्ति और वीतरागता में प्रवृत्ति करनी चाहिए। ये राग और द्वेष दो बोल मुख्यतया निवृत्त्यात्मक हैं।' तीन बोल
४. दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं।
जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [४] तीन दण्डों, तीन गौरवों और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रहता।
५. दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छ-माणुसे।
__ जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [५] दिव्य (देवतासंबंधी), मानुष (मनुष्यसम्बन्धी), और तिर्यञ्चसम्बन्धी जो उपसर्ग हैं, उन्हें जो भिक्षु सदा (समभाव से) सहन करता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन-दण्ड और प्रकार-कोई अपराध करने पर राजा या समाज के नेता द्वारा बन्धन, वध, ताडन आदि के रूप में दण्डित करना द्रव्यदण्ड है तथा जिन अपराधों या हिंसादिजनक प्रवृत्तियों से आत्मा दण्डित होती है, वह भावदण्ड है। प्रस्तुत में भावदण्ड का निर्देश है। भावदण्ड तीन प्रकार के हैंमनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड। दुष्प्रवृत्ति में संलग्न मन, वचन और काय, ये तीनों दण्डरूप हैं। इनसे चारित्रात्मा दण्डित होता है। अतः साधु को इन तीनों दण्डों का त्याग (निवृत्ति) करना और प्रशस्त मन, वचन, काया में प्रवृत्त होना चाहिए।
तीन गौरव-अहंकार से उत्तप्त चित्त की विकृत स्थिति का नाम गौरव है। यह भी ऋद्धि (ऐश्वर्य), रस (स्वादिष्ट पदार्थों) और साता (सुखों) का होने से तीन प्रकार का है। साधक को इन तीनों से निवृत्त और निरभिमानता, मृदुता, नम्रता एवं सरलता में प्रवृत्त होना चाहिए।
तीन शल्य-द्रव्यशल्य बाण, कांटे की नोक को कहते हैं। वह जैसे तीव्र पीड़ा देता है वैसे ही
को आत्मा में प्रविष्ट हए दोषरूपये भावशल्य निरन्तर उत्पीडित करते रहते हैं. आत्मा में चभते रहते हैं। ये भावशल्य तीन प्रकार के हैं—मायाशल्य (कपटयुक्त आचरण), निदानशल्य (ऐहिक-पारलौकिक भौतिक सुखों की वांछा से तप-त्यागादिरूप धर्म का सौदा करना) और मिथ्यादर्शनशल्य आत्मा का तत्त्व के प्रति मिथ्या सिद्धान्तविपरीत–दृष्टिकोण । इन तीनों से निवृत्ति और निःशल्यता में प्रवृत्ति आवश्यक है। निःशल्य होने पर ही व्यक्ति व्रती या महाव्रती बन सकता है।३ ।। १. (क) बद्ध्यतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम्। -आचार्यनमि (ख) स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषाक्लिनस्य कर्मबन्धो भवत्येवम्।
-आवश्यक हरिभद्रीय टीका २. "दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रव्यभावभेदभिन्नाः भावदण्डैरिहाधिकारः।
मनः प्रभृतिभिश्च दुष्यप्रयुक्तैर्दण्ड्यते आत्मेति।" -आचार्य हरिभद्र ३. 'शल्यतेऽनेनेति शल्यम्। आचार्य हरिभद्र, 'शल्यते बाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि।'-बृहद्वृत्ति, पत्र ६१२
निश्शल्यो व्रती -तत्त्वार्थसूत्र ७/१३