SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 601
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०२ उत्तराध्ययनसूत्र [१५] जिसका जो (परिपूर्ण) आहार है, उसमें जो जघन्य एक सिक्थ (अन्नकण) कम करता है (या एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करता है), वह द्रव्य से 'ऊनोदरी तप' है। १६. गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। खेटे कब्बडं-दोणमुहपट्टण-मडम्ब-संबाहे॥ १७. आसमपए विहारे सन्निवेसे समाय-घोसे य। थलि-सेणाखन्धारे सत्थे संवट्ट कोट्टे य॥ १८. वाडसु व रत्थासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं। कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे॥ [१६-१७-१८] ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, सम्बाध-आश्रमपद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर (छावनी), सार्थ, संवर्त और कोट, वाट (बाड़ाया पाड़ा), रथ्या (गली) और घर, इन क्षेत्रों में, अथवा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में (पूर्व) निर्धारित क्षेत्र-प्रमाण के अनुसार (भिक्षा के लिए जाना), इस प्रकार का कल्प, क्षेत्र से अवमौदर्य (ऊनोदरी) तप है। १९. पेडा य अद्धपेडा गोमुत्ति पयंगवीहिया चेव। सम्बुक्कावट्टाऽऽययगन्तुं पच्चागया छट्ठा॥ [१९] अथवा (प्रकारान्तर से) पेटा, अर्द्धपेटा, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, शम्बूकावर्ता और आयतगत्वा-प्रत्यागता—यह छह प्रकार का क्षेत्र से ऊनोदरी तप है। २०. दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वो॥ [२०] दिन के चार पहरों (पौरुषियों) में भिक्षा का जितना नियत काल हो, उसी में (तदनुसार) भिक्षा के लिए जाना, (भिक्षाचर्या करने) वाले मुनि के काल से अवमौदर्य (-ऊनोदरी) तप समझना चाहिए। २१. अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाह घासमेसन्तो। चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे। (छ) सहपरिकर्मणा स्थान—निषदन-त्वग्वर्तनादि विश्रामणादिना च वर्तते यत्तत् सपरिकर्म। अपरिकर्म च तविपरीतम् । यद्वा परिकर्म–संलेखना, सा यत्रास्तीति तत् सपरिकर्म, तविपरीतं तु अपरिकर्म। -बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२-६०३ (ज) पादपस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम्। –औपपातिक वृत्ति, पृ.७१ (झ) पाओवगमणमरणस्स–प्रायोपगमनमरणम्। -मूलाराधना, विजयोदया ८/२०६३ (ज) विचरणं नानागमनं विचारः, विचारेण वर्तते इति सविचारम् एतदुक्तं भवति। -मूला. विजयोदया २/ ६५ "अविचारं अनियतविहारादिविचारणाविरहात्। -मूला. दर्पण ७/२०१५ (ट) यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात्-निस्सारणानिर्झरिमम्।। यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिर्हरणादनिर्दारिमम्। -स्थानांगवृत्ति, २/४/१०२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy