SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समीक्षात्मक अध्ययन/५९. उपासक था। राजा उदायन ने अपना राज्य अभीचकुमार को न देकर अपने भानजे केशी को दिया। 'केशी' को राज्य देने का कारण यही था कि वह राज्य में आसक्त होकर कहीं नरक न जाए। किन्तु राज्य न देने के कारण अभीचकुमार के मन में द्रोह उत्पन्न हुआ। उदायन को, उसकी दिवंगत धर्मपत्नी जो देवी बनी थी, वह स्वर्ग से आकर धर्म की प्रेरणा प्रदान करती है। राजा उदायन को दीक्षा प्रदान करने के लिए श्रमण भगवान् महावीर मगध से विहार कर सिन्धु सौवीर पधारते हैं। उदायन मुनि उत्कृष्ट तप का अनुष्ठान प्रारम्भ करते हैं। स्वाध्याय और ध्यान में अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देते हैं। दीर्घ तपस्या तथा अरस-नीरस आहार से उनका शरीर अत्यन्त कृश हो चुका था, शारीरिक बल क्षीण होने से रुग्ण रहने लगे। जब रोग ने उग्र रूप धारण किया तो स्वाध्याय, ध्यान आदि में विघ्न उपस्थित हुआ। वैद्यों ने दही के प्रयोग का परामर्श दिया। राजर्षि ने देखावीतभय में गोकुल की सुलभता है। उन्होंने वहाँ से विहार किया और वीतभय पधारे। राजा केशी को मंत्रियों ने राजर्षि के विरुद्ध यह कह कर भड़काया कि राजर्षि राज्य छीनने के लिए आये हैं। केशी ने राजर्षि के शहर में आने का निषेध कर दिया। एक कुम्भकार के घर में उन्होंने विश्राम लिया। राजा के केशी ने उन्हें मरवाने के लिए आहार में विष मिलवा दिया। पर रानी प्रभावती, जो देवी बनी थी, वह विष का प्रभाव क्षीण करती रही। एक बार देवी की अनुपस्थिति में विषमिश्रित आहार राजर्षि के पात्र में आ गया। वे उसे शान्त भाव से खा गये। शरीर में विष व्याप्त हो गया। उन्होंने अनशन किया और केवलज्ञान की उन्हें प्राप्ति हुई। देवी के प्रकोप से वीतभय नगर धूलिसात् हो गया।१८१ बौद्ध साहित्य में भी राजा उदायन का वर्णन मिलता है। अवदान कल्पलता के अनुसार उनका नाम उद्रायण था।१८२ दिव्यावदान के अनुसार रुद्रायण था।१८३आवश्यकचूर्णि में उदायन का नाम-उद्रायण भी मिलता है।८४ वह सिन्धु-सौवीर देश का स्वामी था। उसकी राजधानी रोरूक थी। दिवंगत पत्नी ही उसे धर्ममार्ग के लिए उत्प्रेरित करती है। उद्रायण सिन्धु-सौवीर से चलकर मगध पहुँचता है। बुद्ध उसे दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षित होने के बाद वे अपनी राजधानी में जाते हैं और दुष्ट अमात्यों की प्रेरणा से उनका वध होता है। बौद्ध दृष्टि से रुद्रायण ने अपना राज्य अपने पुत्र शिखण्डी को सौंपा था। अंत में देवी के प्रकोप के कारण रोरूक धूलिसात् हो जाता है। विज्ञों का यह मन्तव्य है कि प्रस्तुत रुद्रायण प्रकरण बौद्ध साहित्य के बाद में आया है क्योंकि हीनयान परम्परा के ग्रन्थों में यह वर्णन प्राप्त नहीं है। महायानी परम्परा के त्रिपिटक, जो संस्कृत में हैं, उनमें यह वर्णन सम्प्राप्त है। डॉ. पी. एल. वैद्य का अभिमत है कि दिव्यावदान की रचना ई. सन् २०० से ३५० तक के मध्य में हुई है। इसीलिए जैन परम्परा के उदायन को ही बौद्ध परम्परा में रुद्रायणावदान के रूप में परिवर्तित किया है। दोनों ही परम्पराओं में एक ही व्यक्ति दीक्षित कैसे हो सकता है ? बौद्ध परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा का 'उदायण प्रकरण' अधिक विश्वस्त है। प्रस्तुत अध्ययन में उदायन का केवल नाम निर्देश ही हुआ है। हमने दोनों ही परम्पराओं के आधार से संक्षेप में उल्लेख किया है। काशीराज का नाम नन्दन था और वे सातवें बलदेव थे। वे वाराणसी के राजा अग्निशिख के पुत्र थे। १८१. उत्तराध्ययनसूत्र-भावगणि विचरित वृत्ति, अध्य. १८, पत्र ३८०-३८८ १८२. अवदान कल्पलता-अवदान ४०, क्षेमेन्द्र सं. शरत्चन्द्रदास और पं. हरिमोहन विद्याभूषण १८३. दिव्यावदान–रुद्रायणावदान ३७, सं. डॉ. पी. एल. वैद्य, प्रका. मिथिला विद्यापीठ-दरभंगा १८४. उद्दारण राया, तावसभत्तो -आवश्यकचूर्णि पूर्वार्द्ध पत्र ३९९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy