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उत्तराध्ययनसूत्र
[९] अनशन तप के दो प्रकार हैं—इत्वरिक और आमरणकालभावी। इत्वरिक (अनशन) सावकांक्ष (निर्धारित उपवासादि अनशन के बाद पुनः भोजन की आकांक्षा वाला) होता है। आमरणकालभावी निरवकांक्ष (भोजन की आकांक्षा से सर्वथा रहित) होता है।
१०. जो सो इत्तरियतवो सो समासेण छव्विहो।
सेढितवो पयरतवो घणो य तह होइ वग्गो य॥ ११. तत्तो य वग्गवग्गो उ पंचमी छट्टओ पइण्णतवो।
मणइच्छिय-चित्तत्थो नायव्वो होइ इत्तरिओ॥ [१०-११] इत्वरिक तप संक्षेप से छह प्रकार का है—(१) श्रेणितप, (२) प्रतरतप, (३) घनतप तथा (४) वर्गतप।
पाँचवाँ वर्ग वर्गतप और छठा प्रकीर्णतप। इस प्रकार मनोवांछित नाना प्रकार का फल देने वाला इत्वरिक अनशन तप जानना चाहिए।
१२. जा सा अणसणा मरणे दुविहा सा वियाहिया।
सवियार—अवियारा कायचिटुं पई भवे॥ [१२] कायचेष्टा के आधार पर आमरणकालभावी जो अनशन है, वह दो प्रकार का कहा गया है-सविचार (करवट बदलने आदि चेष्टाओं से युक्त) और अविचार (उक्त चेष्टाओं से रहित)।
१३. अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया।
नीहारिमणीहारी आहारच्छेओ य दोसु वि॥ [१३] अथवा आमरणाकलभावी अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म, ये दो भेद हैं। अविचार अनशन के निर्हारी और अनिर्हारी, ये दो भेद भी होते हैं। दोनों में आहार का त्याग होता है।
विवेचन-बाह्य तप से परम लाभ-यदि पूर्वकाल में (बाह्य) तप नहीं किया हो तो मरणकाल में समाधि चाहता हुआ भी साधक परीषहों को सहन नहीं कर सकता। विषयसुखों में आसक्त हो जाता है। बाह्य तप के आचरण से मन दुष्कर्म में प्रवृत्त नहीं होता, प्रायश्चित्तादि तपों में श्रद्धा होती है। बाह्य तप से पूर्व स्वीकत व्रतादि का रक्षण होता है। बाह्य तप से सम्पर्ण सखस्वभाव का त्याग होता है. शरीरसंलेखना के उपाय की प्राप्ति होती है और आत्मा संसारभीरुता नामक गुण में स्थिर होता है।
बाह्यतप के सुफल - (१) इन्द्रियदमन, (२) समाधियोग-स्पर्श, (३) वीर्यशक्ति का उपयोग, (४) जीवनसम्बन्धी तृष्णा का नाश, (५) संक्लेशरहित कष्टसहिष्णुता का अभ्यास, (६) देह, रस एवं सुख के प्रति प्रतिबद्धता, (७) कषायनिग्रह, (८) भोगों के प्रति औदासीन्य, (९) समाधिमरण का स्थिर अभ्यास, (१०) अनायास आत्मदमन, (११) आहार के प्रति अनाकांक्षा का अभ्यास, (१२) अनासक्ति-वृद्धि, (१३) लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों में समता, (१४) ब्रह्मचर्यसिद्धि, (१५) निद्राविजय, (१६) त्यागदृढता, (१७) विशिष्ट त्याग का विकास, (१८) दर्पनाश, (१९) आत्मा कुल, गण, शासन की
१. भगवती आराधना मूल ९१, १९३