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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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श्रुत की अनाशातना-ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आप्तोपदेश एवं आगम, ये श्रुत के पर्यायवाची हैं। इनकी आशातना-अवज्ञा न करना अनाशातना है।
तीर्थधर्म का अवलम्बन :-सूत्र २० में श्रुत की आशातना न करने वाला तीर्थधर्म का आलम्बन है। तीर्थ शब्द का अर्थ-(१) प्रवचन, (२) गणधर, (३) चतुर्विधसंघ, तीर्थ शब्द के इन तीनों अर्थों के आधार पर तीन तीर्थधर्म के तीन अर्थ होते हैं—(१) प्रवचन का धर्म (स्वाध्याय करना), (२) गणधरधर्म-शास्त्र की कर्णोपकर्णगत शास्त्रपरम्परा को अविच्छिन्न रखना, और (३) श्रमणसंघ का धर्म ।
महापज्जवसाणे-महापर्यवसान—संसार का अन्त करना। कंखामोहणिजं : कांक्षामोहनीय–कांक्षामोहनीय मिथ्यात्व-मोहनीय का ही एक प्रकार है।
व्यंजनलब्धि : तात्पर्य-पदानुसारिणीलब्धि या एक व्यंजन के आधार पर शेष व्यंजनों को उपलब्ध करने की शक्ति
श्रताराधना का फल-एक आचार्य ने कहा है-ज्यों-ज्यों श्रुत (शास्त्र) में गहरा उतरता जा त्यों-त्यों अतिशय प्रशम-रस में सराबोर होकर अपूर्व आनन्द (आह्लाद) प्राप्त करता है, संवेगभाव नयी-नयी श्रद्धा से युक्त होता जाता है। २५. एकाग्र मन की उपलब्धि
२६. एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ? एगग्गमणसंनिवेसणायाए णं चित्तनिरोहं करेइ॥ [२६ प्र.] भन्ते! मन को एकाग्रता में स्थापित करने (सन्निवेशन से जीव क्या उपलब्ध करता है? [उ.] मन को एकाग्रता में स्थापित करने से चित्त (वृत्ति) का निरोध होता है।
विवेचन–मन की एकाग्रता : आशय-(१) मन को एकाग्र अर्थात् एक अवलम्बन में स्थिर करना। (२) एक ही पुद्गल में दृष्टि को निविष्ट (स्थिर) करना। (३) ध्येय विषयक ज्ञान की एकतानता भी एकाग्रता है।
चित्तनिरोध—चित्त की विकल्पशून्यता। . (क) तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्म:-आचारः, श्रुतधर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः।
(ख) यदि वा तीर्थ-प्रवचनं श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्मः स्वाध्यायः। -बृहवृत्ति, पत्र ५८४
(ग) तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तंजहा—समणा समणीओ, सावगा, सावियाओ।-भगवती. २०/८ २. मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशेष्यते-कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वाच्चास्य
शंकादिपरिग्रहः। कांक्षायाः मोहनीयं-कांक्षामोहनीयम्-मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः। ३. च शब्दाद् व्यंजनसमुदायात्मकत्वाद्वा पदस्य तल्लब्धि पदानुसारितामुत्पादयति। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ ४. "जह जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुवे।
तह तह पल्हाइ मुणी, नव-नव संवेगसद्धस्स॥" (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. २७९
(ख) "एकपोग्गलनिविट्ठदिट्ठित्ति।" -अन्तकृत्. गजसुकुमालवर्णन ६. उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण, मुनि नथमलजी) पृ. २३७