________________
उत्तराध्ययन / ५४ ।
।
में भूपन और धूमपान दोनों का निषेध है 'विनयपिटक' के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि बौद्ध धूमपान करने लगे थे तब तथागत बुद्ध ने उन्हें धूमनेत्र की अनुमति दी । १६४ उसके पश्चात् भिक्षु स्वर्ण, रौप्य आदि के भूमनेत्र रखने लगे । १६५ इससे यह स्पष्ट है कि भिक्षु और संन्यासियों में धूमपान न करने के लिए धूमनेत्र रखने की प्रथा थी। पर भगवान् महावीर ने श्रमणों के लिए उनका निषेध किया।
वमन का अर्थ उल्टी करनामदन' फल आदि के प्रयोग से आहार को उल्टी के द्वारा बाहर निकालना है । इसे ऊर्ध्वविरेक कहा है। १६६ अपानमार्ग के द्वारा स्नेह आदि का प्रक्षेप 'वस्तिकर्म' कहलाता है। चरक आदि में विभिन्न प्रकार के वस्तिकर्मों का वर्णन है। १६७ जुलाब के द्वारा मल को दूर करना विरेचन है। इसे अधोविरेक भी कहा है । १६८ उस युग में आजीवक आदि श्रमण छिन्नविद्या, स्वरविद्या, भौम, आन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तुविद्या, अंगविकार एवं स्वरविज्ञान विद्याओं से आजीविका करते थे, जिससे जन-जन का अन्तर्मानस आकर्षित होता था । साधना में विघ्नजनक होने से भगवान् ने इनका निषेध किया।
ब्रह्मचर्य एक अनुचिन्तन
सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य-समाधि का निरूपण है। अनन्त, अप्रतिम, अद्वितीय, सहज आनन्द आत्मा का स्वरूप है। वासना विकृति है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है - विकृति से बचकर स्वरूपबोध प्राप्त करना । प्रश्नव्याकरण सूत्र में विविध उपमाओं के द्वारा ब्रह्मचर्य की महिमा और गरिमा गाई है। जो ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करता है वही समस्त व्रत, नियम, तप, शील, विनय, सत्य, संयम आदि की आराधना कर सकता है। ब्रह्मचर्य व्रतों का सरताज है, यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य स्वयं भगवान् है । ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथुन - विरति या सर्वेन्द्रिय संयम है। सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का सम्बन्ध मानसिक भूमिका से है, पर ब्रह्मचर्य के लिए दैहिक और मानसिक ये दोनों भूमिकाएँ आवश्यक हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य को समझने के लिए शरीरशास्त्र का ज्ञान भी जरूरी है।
मोह और शारीरिक स्थिति, ये दो अब्रह्म के मुख्य कारण हैं। शारीरिक दृष्टि से मनुष्य जो आहार करता है उससे रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि मज्जा और वीर्य बनता है। १६९ वीर्य सातवीं भूमिका में बनता है। उसके पश्चात् वह ओज रूप में शरीर में व्याप्त होता है। ओज केवल वीर्य का ही सार नहीं है वह सभी धातुओं का सार है। हमारे शरीर में अनेकों नाड़ियाँ हैं। उन नाड़ियों में एक नाड़ी कामवाहिनी है। वह पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है विविध आसनों के द्वारा इस नाड़ी पर नियंत्रण किया जाता है। आहार से जो वीर्य बनता है, वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय के अन्दर भी जाता है। जब वीर्याशय में वीर्य की मात्रा अधिक पहुंचती है तो वासनाएँ उभरती हैं। अतः ब्रह्मचारी के लिए यह कठिन समस्या है क्योंकि जब तक जीवन है तब तक आहार तो करना ही पड़ता है। आहार से वीर्य का निर्माण होगा वह वीर्याशय में जायेगा और पहले का वीर्य बाहर निकलेगा। वह क्रम सदा जारी रहेगा। इसीलिए भारतीय ऋषियों ने वीर्य को मार्गान्तरित करने की प्रक्रिया बताई है। मार्गान्तरित करने से वीर्य वीर्याशय में कम जाकर ऊपर सहस्रार चक्र में अधिक मात्रा में जाने से साधक ऊर्ध्वरेता बन सकता है। आगमसाहित्य में साधकों के लिए घोर ब्रह्मचारी शब्द व्यवहत हुआ है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में घोर ब्रह्मचारी उसे माना है जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित नहीं होता । स्वप्न में भी उसके मन में अशुभ संकल्प पैदा नहीं होते ।
विनयपिटक, महावग्ग ६/२/७
१६४. अनुजानामि भिक्ख धूमतं ति १६६. सूत्रकृतांग १/९/१२ प. १८० : टीका १६८. (क) दशवैकालिक अगस्त्यसिंहपूर्ण पृष्ठ ६२ (ख) सूत्रकृतांग टीका २१/९/१२. पत्रा १८०.
१६९. रसाद् रक्तं ततो मांसं, मांसान् मेदस्ततोऽस्थि च । अस्थिभ्यो मज्जा ततः शुक्रं .... । – अष्टांगहृदय अ. ३, श्लोक ६.
१६५. विनयपिटक, महावग्ग - ६/२/७ १६७. चरक, सिद्धिस्थान १.