________________
सत्ताईसवाँ अध्ययन : खलुकीय
४३५
१७. मिउ-मद्दवसंपन्ने गम्भीरे सुसमाहिए।
विहरइ महिं महप्पा सीलभूएण अप्पणा॥ -त्ति बेमि। [१७] (उसके पश्चात्) मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर, सुसमाहित एवं शीलभूत (चारित्रमय) आत्मा से युक्त होकर वे महात्मा गार्याचार्य (अविनीत शिष्यों को छोड़कर) पथ्वी पर (एकाकी) विचरण करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-गलिगर्दभ से उपमित कुशिष्य-गार्याचार्य के द्वारा 'गलिगर्दभ' शब्द का प्रयोग उक्त शिष्यों की दुष्टता एवं नीचता बताने के लिए किया गया है। प्रायः गधों का यह स्वभाव होता है कि मंदबुद्धि होने के कारण बार-बार अत्यन्त प्रेरणा करने पर ही वे चलते हैं या नहीं चलते, इसी प्रकार गार्याचार्य के शिष्य भी बार-बार प्रेरणा देने पर भी सन्मार्ग पर नहीं चलते थे, ढीठ होकर उलटा-सीधा प्रतिवाद करते थे, वे साधना में आलसी और निरुत्साह हो गए थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि 'मेरा सारा समय तो इन्हीं कुशिष्यों को प्रेरणा देने में चला जाता है, अन्य साधना के लिए शान्त वातावरण एवं समय नहीं मिलता, अतः इन्हें छोड़ देना श्रेयस्कर है, यह सोच कर वे एकाकी होकर आत्मसाधना में संलग्न हो गए।
मिउ-मद्दवसंपन्ने-मृदु-बाह्यवृत्ति से कोमल—विनम्र तथा मन से भी मृदुता से युक्त।
॥ खलुंकीय : सत्ताईसवाँ अध्ययन समाप्त॥
000
१. उत्तरा. वृत्ति. अभिधान रा. कोष भा. ३, पृ.७२७ २. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र २२२