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मेरा भक्त है, मेरे पास उत्तम वस्त्र - पात्रादि हैं, इस प्रकार कोई अपनी ऋद्धि - अहंकार से युक्त है।
रसगारविए- किसी शिष्य को यह गर्व है कि मैं सरस स्वादिष्ट आहार पाता हूँ या सेवन करता हूँ । इस कारण वह न तो रुग्ण या वृद्ध साधुओं के लिए उपहार लाता है और न तपस्या करता है ।
सायागार विए- किसी को सुखसुविधाओं से सम्पन्न होने का अहंकार है, इस कारण वह एक ही स्थान पर जमा हुआ है, अन्यत्र विहार नहीं करता, न परीषह सहन कर सकता है।
थद्धे—कोई स्तब्ध यानी अभिमानी है, हठाग्रही है, उसे कदाग्रह छोड़ने के लिए मनाया या नम्र किया नहीं जा सकता ।
ओमाणभीरुए— अपमानभीरु होने के कारण अपमान के डर से किसी के यहाँ भिक्षा के लिए नहीं
जाता।
साहू अन्नोऽत्थवच्चउ --- दूसरा कोई चला जाए (अर्थात् कोई कहता है- क्या मैं अकेला ही आपका शिष्य हूँ, जिससे हर काम मुझे ही बताते हैं ? दूसरे बहुत-से शिष्य हैं, उन्हें भेजिए न ! )
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पलिउंचति: दो अर्थ- (१) किसी कार्य के लिए भेजने पर बिना कार्य किये ही वापस लौट आते हैं, अथवा (२) किसी कार्य के भेजने पर वे अपलाप करते हैं, अर्थात् व्यर्थ के प्रश्नोत्तर करते हैं, जैसेगुरु के ऐसा पूछने पर कि वह कार्य क्यों नहीं किया ? वे झूठा उत्तर दे देते हैं कि "उस कार्य के लिए आपने कब कहा था ? " अथवा "हम तो गए थे, लेकिन उक्त व्यक्ति वहाँ मिला ही नहीं।'
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परियंति समंतओ - वे कुशिष्य वैसे तो चारों ओर भटकते या घूमते रहते हैं, किन्तु हमारे पास यह सोचकर नहीं रहते कि इनके पास रहेंगे तो इनका काम करना पड़ेगा, यों सोचकर वे हम से दूर-दूर रहते हैं । ३ वाइया संगहिया चेव — इन्हें सूत्रवाचना दी, शास्त्र पढ़ाकर विद्वान् बनाया, इन्हें अपने पास रक्खा तथा स्वयं ने इन्हें दीक्षा दी । ४
किं मज्झ दुट्ठिसीसेहिं — ऐसे दुष्ट — अविनीत शिष्यों से मुझे क्या लाभ? अर्थात् — मेरा कौन सा इहलौकिक या पारलौकि प्रयोजन सिद्ध होता है ? उलटे, इन्हें प्ररणा देने से मेरे काय (आत्म-कर्त्तव्य) में हानि होती है और कोई फल नहीं । फलितार्थ यह निकलता है कि इन कुशिष्यों का त्याग करके मुझे स्वयं उद्यतविहारी होना चाहिए । यही गार्ग्याचार्य के चिन्तन का निष्कर्ष है । 4
शिष्यों का त्याग करके तपः साधना में संलग्न गार्ग्याचार्य
१६. जारिसा मम सीसाउ तारिसा गलिगद्दहा ।
गलिगद्दहे चइत्ताणं दढं परिगिण्हइ तवं ॥
उत्तराध्ययनसूत्र
[१६] जैसे गलिगर्दभ (आलसी और निकम्मे गधे) होते हैं, वैसे ही ये मेरे शिष्य हैं। (ऐसा सोचकर गार्ग्याचार्य ने) गलिगर्दभरूप शिष्यों को छोड़ कर दृढ तपश्चरण ( उग्र बाह्याभ्यन्तर तपोमार्ग) स्वीकार किया।
उत्तराध्ययनवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ३, पृ. ७२६
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+ (क) उत्तरा . ( साध्वी चन्दना) पृ. २८४
उत्तरा . वृत्ति, अभि. रा. को भा. ३, पृ. ७२६ ४. वही, भा. ३, पृ. ७२६
(ख) उत्तरा, वृत्ति, अभि. रा. को. भा. ३, वृ. ७२६
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वही, भा. ३ पृ. ७२६