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________________ ४२६ उत्तराध्ययनसूत्र ४३. पारियकाउस्सग्गो वन्दित्ताण तओ गुरूं। थुइमंगलं च काऊण कालं संपडिलेहए। [४३] कायोत्सर्ग पूरा (पारित) करके गुरु को वन्दना करे। फिर स्तुति-मंगल (सिद्धस्तव) करके काल का सम्यक् प्रतिलेखन करे। विवेचन-दैवसिक प्रतिक्रमण का क्रम-३९वीं गाथा के अन्त में दूसरी पंक्ति में जो कायोत्सर्ग का विधान किया गया था, वह इसी प्रतिक्रमण से सम्बन्धित है, जो ४०वीं गाथा से प्रारम्भ होता है। अर्थात् -प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पूर्व सर्वदुःखनाशक कायोत्सर्ग करे, उसमें (४०वीं गाथा के अनुसार) ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित दिन भर में जो भी अतिचार लगे हों, उनका क्रमशः चिन्तन करे। __ ज्ञान के १४ अतिचार -व्याविद्ध, व्यत्यानेडित, हीनाक्षर, अत्यक्षर, पदहीन, विनयहीन, योगहीन, घोषहीन, सुष्ठदत्त, दुष्ठुप्रतीच्छित, अकाल में स्वाध्याय किया, काल में स्वाध्याय न किया, ये १४ ज्ञान में लगने वाले अतिचार (दोष) हैं। दर्शन के ५ अतिचार -शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्डिप्रशंसा और परपाषण्डिसंस्तव, ये दर्शन (सम्यग्दर्शन) के ५ अतिचार हैं। चारित्र के अतिचार -५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति तथा अन्यविहित कर्त्तव्यों में जो भी अतिचार हैं, वे चारित्रितक अतिचार हैं। इसमें शयनसम्बन्धी, भिक्षाचरीसम्बन्धी प्रतिलेखनसम्बन्धी तथा स्वाध्यायसम्बन्धी तथा गमनागमनसम्बन्धी (ऐर्यापथिक) प्रतिक्रमण भी आ जाता है। यों अतिचारों का चिन्तन, फिर कायोत्सर्ग करके गुरु को द्वादशावत वन्दन, तदनन्तर दिवस सम्बन्ध चिन्तित अतिचारों की गुरु के समक्ष आलोचना करे—इसमें गुरु के समक्ष दोषों का प्रकटीकरण, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा, क्षमापना, प्रायश्चित्त इत्यादि प्रतिक्रमण के सब अंगों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण करके निःशल्य, शुद्ध होकर गुरुवन्दना करके फिर कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् पुनः गुरुवन्दन करके सिद्धस्तव (चतुर्विंशतिस्तव) रूप स्ततिमंगल करके 'नमोत्थणं' बोल कर प्रादोषिक काल की प्रतिलेखना करे। यह हुआ समग्र दैवसिक प्रतिक्रमण का सांगोपांग क्रम। रात्रिक चर्या और प्रतिक्रमण ४४. पढम पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए निद्दमोक्खं तु सज्झायं तु चउत्थिए। [४४] (रात्रि के) प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। ___४५. पोरिसीए चउत्थीए कालं तु पडिलेहिया। सज्झायं तओ कुजा अबोहेन्तो असंजए।। [४५] चौथे प्रहर में काल का प्रतिलेखन कर असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे। १. उत्तराध्ययन (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २१७-२१८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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