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________________ ३८० उत्तराध्ययनसूत्र [७३] (गणधर गौतम)—शरीर को नौका कहा गया है और जीव (आत्मा) को इसका नाविक (खेवैया) कहा जाता है तथा (जन्ममरणरूप चातुर्गतिक) संसार को समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षि पार कर जाते विवेचन–अस्साविणी नावा—आस्राविणी नौका का अर्थ है—जिसमें छिद्र होने से पानी अन्दर आता हो, भर जाता हो, जिसमें से पानी रिसता हो, निकलता हो। निरस्साविणी नावा-नि:स्राविणी नौका वह है, जिसमें पानी अन्दर न आ सके, भर न सके। गौतम का आशय-गौतमस्वामी के कहने का आशय है कि जो नौका सछिद्र होती है, वह बीच में ही डूब जाती है, क्योंकि उसमें पानी भर जाता है, वह समुद्रपार नहीं जा सकती। किन्तु जो नौका निश्छिद्र होती है, उसमें पानी नहीं भर सकता, वह बीच में नहीं डूबती तथा वह निर्विघ्नरूप से व्यक्ति को सागर से पार कर देती है। मैं जिस नौका पर चढ़ा हुआ हूँ, वह सछिद्र नौका नहीं है, किन्तु निश्छिद्र है, अत: वह न तो डगमगा सकती है, न मझधार में डूब सकती है। अतः मैं उस नौका के द्वारा समुद्र को निर्विघ्नतया पार कर लेता हूँ।२ शरीरमाहु नाव त्ति-शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कह कर संकेत किया है कि जो साधक निश्छिद्र नौका की तरह समस्त कर्माश्रव-छिद्रों को बन्द कर देता है, वह संसारसागर को पार कर लेता है। ___आशय यह है कि यह शरीर जब कर्मागमन के कारणरूप आश्रवद्वार से रहित हो जाता है, तब रत्नत्रय की आराधना का साधनभूत बनता हुआ इस जीवरूपी मल्लाह को संसार-समुद्र से पार करने में सहायक बन जाता है, इसीलिए ऐसे शरीर को नौका की उपमा दी गई है। रत्नत्रयाराधक साधक ही शरीररूपी नौका द्वारा इस संसारसमुद्र को पार करता है, इसलिए इसे नाविक कहा गया है। जीवों द्वारा पार करने योग्य यह जन्ममरणादि रूप संसार है। ग्यारहवाँ प्रश्नोत्तर : अन्धकाराच्छन्न लोक में प्रकाश करने वाले के सम्बन्ध में ७४. साहु गोयम! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा!॥ [७४] (केशी कुमारश्रमण)—गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरे इस संशय को मिटा दिया, (किन्तु) मेरा एक और संशय है। उसके विषय में भी आप मुझे बताइए। ७५. अन्धयारे तमे घोरे चिट्ठन्ति पाणिणो बहू। ___को करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं?॥ [७५] घोर एवं गाढ़ अन्धकार में (संसार के) बहुत-से प्राणी रह रहे हैं। (ऐसी स्थिति में) सम्पूर्ण लोक में प्राणियों के लिए कौन उद्योत (प्रकाश) करेगा? ७६. उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं॥ १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९५३ २. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९५३ ३. वही, पृ. ९५४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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