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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशी-गौतमीय ३६५ समागम किया जाए तो क्या हानि है? अपरिगृहीता से समागम का तो निषेध है ही नहीं? सूत्रकृतांगसूत्र में भी तीन गाथाएँ ऐसी मिलती हैं, जिनमें ऐसी ही कुयुक्तियों सहित एक मिथ्या मान्यता प्रस्तुत की गई है। सूत्रकृतांग में इन्हें पार्श्वस्थ और वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने इन्हें 'स्वयूथिक' भी बताया है। इन सब कुतर्को, कुयुक्तियों और मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करने हेतु भ. महावीर ने 'ब्रह्मचर्य' को पृथक् चतुर्थ महाव्रत के रूप में स्थान दिया। __ अचेलगो य जो धम्मो—(१) अचेलक—वह धर्म-साधना, जिसमें बिलकुल ही वस्त्र न रखा जाता हो अथवा (२) अचेलक—जिसमें अल्प मूल्य वाले, जीर्णप्राय एवं साधारण—प्रमाणोपेत श्वेतवस्त्र रखे जाते हों। 'अ' का अर्थ अभाव भी है और अल्प भी। जैसे—'अनुदरा कन्या' का अर्थ-बिना पेट वाली कन्या नहीं, अपितु अल्प-कृश उदर वाली कन्या होता है। आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में साधना के इन दोनों रूपों का उल्लेख है। विष्णुपुराण में भी जैन मुनियों के निर्वस्त्र और सवस्त्र, इन दोनों रूपों का उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत में भी 'अचेलक' शब्द के द्वारा इन दोनों अर्थों को ध्वनित किया गया है। यह अचेलक धर्म भ. महावीर द्वारा प्ररूपित है।२।। जो इमो संतरुत्तरो : तीन अर्थ—यह सान्तरोत्तर धर्म भ. पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित है। इसमें 'सान्तर' और 'उत्तर' ये दो शब्द हैं। जिनके तीन अर्थ विभिन्न आगम वृत्तियों में मिलते हैं—(१) बृहवृत्तिकार के अनुसार—सान्तरण का अर्थ-विशिष्ट अन्तर यानी प्रधान सहित है और उत्तर का अर्थ है-नाना वर्ण के बहुमूल्य और प्रलम्ब वस्त्र से सहित, (२) आचारांगसूत्र की वृत्ति के अनुसार—सान्तर का अर्थ है— विभिन्न अवसरों पर तथा उत्तर का अर्थ है-प्रावरणीय। तात्पर्य यह है कि मुनि अपनी आत्मशक्ति को तोलने के लिए कभी वस्त्र का उपयोग करता है और कभी शीतादि की आशंका से केवल पास रखता है। (३) ओघनियुक्तिवृत्ति, कल्पसूत्रचूर्णि आदि में वर्षा आदि प्रसंगों में सूती वस्त्र को भीतर और ऊपर में ऊनी वस्त्र ओढ़ कर भिक्षा आदि के लिए जाने वाला। सान्तरोत्तर का शब्दानुसारी प्रतिध्वनित अर्थ-अन्तर- अन्तरीय (अधोवस्त्र) और उत्तर-उत्तरीय ऊपर का वस्त्र भी किया जा सकता है। १. (क) बहिद्धाणाओ वेरमणं'- बहिस्ताद् आदानविरमणं। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४९९ (ग) नो अपरिग्गहियाए इत्थीए, जेण होई परिभोगो। ता तव्विरई इच्चअ अबंभविरइ त्ति पन्नाणं ।। - कल्पसमर्थनम् गा. १५ (घ) सूत्रकृतांग १,३, ४/१०-११-१२ २. (क) अचेलं मानोपेतं धवलं जीर्णप्रायं, अल्पमूल्यं वस्त्रं धारणीयमिति वर्द्धमानस्वामिना प्रोक्तम्, असत् इव चेलं यत्र स अचेलः, अचेल एवं अचेलकः, यत् वस्त्रं सदपि असदिव तद् धार्यमित्यर्थः।। (ख) 'दिग्वाससामयं धर्मो, धर्मोऽयं बहुवाससाम्।' -विष्णुपुराण अंश ३, अध्याय १८, श्लोक १० ३. (क) सह अन्तरेण उत्तरेण प्रधान-बहुमूल्येन नानावर्णेन प्रलम्बन वस्त्रेण यः वर्तते, स सान्तरोत्तरः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५०० (ख) 'सान्तरमुत्तरं' प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित् प्रावृणोति, क्वचित् पार्श्ववर्ति विभर्ति शीताशंकया नाऽद्यापि परित्यजति । आत्मपरितलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत। -आचारांग १८४/५१ वत्ति, पत्र २५२ (ग) ओघनियुक्ति गा. ७२६ वृत्ति, कल्पसूत्रचूर्णि, पत्र २५६; उत्तराध्ययन (अनुवाद टिप्पण साध्वी चन्दना) पृ. ४४२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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