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उत्तराध्ययनसूत्र
अयंतिए कूडकहावणे वा — इसका सामान्य अर्थ होता है— अयंत्रित — अनियमित कूटकार्षापणवत् । कार्षापण एक सिक्के का नाम है, जो चांदी का होता था । यहाँ साध्वाचारशून्य निःसार ( थोथे ) साधु की खोटे सिक्के से उपमा दी गई है। खोटे सिक्के को कोई भी नहीं अपनाता और न उससे व्यवहार चलता है, वह सर्वथा उपेक्षणीय होता है, इसी तरह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरहित साधु भी गुरु, संघ आदि द्वारा उपेक्षणीय होता है ।
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इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता - (१) ऋषिध्वज अर्थात् मुनिचिह्न – रजोहरण आदि, उन्हीं को जीविका के लिए लोगों के समक्ष प्रधान रूप से प्रतिपादित करके, अर्थात् — साधु के रजोहरणादि चिह्न होने चाहिए, और बातों में क्या रखा है ? इस प्रकार वेष और चिह्न से जीने वाला । अथवा (२) ऋषिध्वज से असयंमी जीवन का पोषण करके, या (३) निर्वाहोपायरूप जीविका का पोषण करके । २
एसे व धम्मो विसओववन्नो — कालकूट विष आदि की तरह शब्दादि विषयों से युक्त सुविधावादी धर्म — श्रमणधर्म भी विनाशकारी अर्थात् — दुर्गतिपतन का हेतु होता है। वेयाल इवाविवण्णो-मंत्र आदि से वश में नहीं किया हुआ अनियंत्रित वेताल भी अपने साधक को ध्वंस कर देता है, तद्वत् । ३
कुहेडविज्जासवदारजीवी — कुहेटक विद्या — मिथ्या, आश्चर्य में डालने वाली मंत्र-तंत्रज्ञानात्मिका विद्या, जो कि कर्मबन्धन का हेतु होने से आश्रवद्वार रूप है, ऐसी जादूगरी विद्या से जीविका चलाने वाला । ४ निमित्त कोऊहलसंपगाढे— निमित्त कहते हैं—भौम, अन्तरिक्ष आदि, कौतूहल — कौतुक — संतानादि लिए स्नानादि प्रयोग बताना। इन दोनों में अत्यासक्त ।
तमंतमेणेव उ से०.. अत्यन्त मिथ्यात्व से आहत होने के कारण घोर अज्ञानान्धकार के कारण वह शीलविहीन द्रव्यसाधु सदा विराधनाजनित दुःख से दुःखी होकर तत्वादि के विषय में विपरीत दृष्टि अपनाता है।
अग्गीव सव्वभक्खी - जैसे अग्नि गीली - सूखी सभी लकड़ियों को अपना भक्ष्य बना लेती (जला डालती है, वैसे ही हर परिस्थिति में अनेषणीय ग्रहणशील कुसाधु अप्रासुक आदि सभी पदार्थ खा जाता है।
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से नाहिई. . पच्छाणुतावेण - वह संयम सत्यादिविहीन द्रव्यसाधु मृत्यु के समय * 'हाय ! मैंने बहुत बुरा किया, पापकर्म किया', इस रूप में पश्चाताप के साथ उक्त तथ्य को जान लेता है । कहावत है -
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१. अयन्त्रितः — अनियमितः कूटकार्षापणवत् । वा शब्दस्येहोपमार्थत्वात् । यथाऽसौ न केनचित् कूटतया नियंत्र्यते, तथैषोऽपि गुरूणामप्यविनीततयोपेक्षणीयत्वात् । —बृहद्वृत्ति, पत्र ४७८
२. 'ऋषिध्वजं – मुनिचिह्नं रजोहरणादि, जीवियत्ति — जीविकायै, बृहंयित्वा — इदमेव प्रधानमिति ख्यापनेनोपबृंह्य; यद्वा 'इसिज्झयंमि' - ऋषिध्वजेन जीवितं - असयंमजीवितं, जीविकां वा — निर्वहणोपायरूपां बृहंयित्वेति — पोषयित्वा ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ४७८
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३-४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७८-४७९
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७९
६. 'तमस्तमसैव — अतिमिध्यात्वोपहततया प्रकृष्टाज्ञानेनैव ..... । - वही, पत्र ४७९
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७९