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उत्तराध्ययनसूत्र मुनि द्वारा अपनी अनाथता का प्रतिपादन
१७. सुणेह मे महाराय! अव्वक्खित्तेण चेयसा।
जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं॥ [१७] हे महाराज! आप मुझे से अव्याक्षिप्त (एकाग्र) चित्त होकर सुनिये कि (वास्तव में मनुष्य) अनाथ कैसे होता है? और मैंने किस अभिप्राय से वह (अनाथ) शब्द प्रयुक्त किया है?
१८. कोसम्बी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी।
तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचओ॥ [१८] (मुनि)-प्राचीन नगरों में असाधारण, अद्वितीय कौशाम्बी नाम की नगरी है। उसमें मेरे पिता (रहते) थे। उनके पास प्रचुर धन का संग्रह था।
१९. पढमे वए महाराय! अउला मे अच्छिवेयणा।
__ अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेसु य पत्थिवा!॥ [१९] महाराज! प्रथम वय (युवावस्था) में मुझे (एक बार) अतुल (असाधारण) नेत्र पीड़ा उत्पन्न हुई। हे पृथ्वीपाल! उससे मेरे शरीर के सभी अंगों में बहुत (विपुल) जलन होने लगी।
२०. सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरविवरन्तरे।
__पवेसेज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा॥ [२०] जैसे कोई शत्रु क्रुद्ध होकर शरीर के (कान-नाक आदि के) छिद्रों में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र को घोंप दे और उससे जो वेदना हो, वैसी ही (असह्य) वेदना मेरी आंखों में होती थी।
२१. तियं मे अन्तरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई।
इन्दासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा॥ [२१] इन्द्र के वज्र-प्रहार के समान घोर एवं परम दारुण वेदना मेरे त्रिक—कटि भाग को, अन्तरेच्छ- हृदय को और उत्तमांग –मस्तिष्क को पीड़ित कर रही थी।
२२. उवट्ठिया मे आयरिया विजा-मन्ततिगिच्छगा।
___ अबीया सत्थकुसला मन्त-मूलविसारया॥ [२२] विद्या और मंत्र से चिकित्सा करने वाले, मंत्र तथा मूल (जड़ी-बूटियों में) विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल प्राणाचार्य (आयुर्वेदाचार्य) उपस्थित हुए।
२३. ते मे तिगिच्छं कुव्वन्ति चाउप्पायं जहाहियं।
न य दुक्खा विमोयन्ति एसा मज्झ अणाहया॥ [२३] जैसे भी मेरा हित हो, वैसे उन्होंने मेरी चतुष्पाद (वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक रूप चतुष्प्रकार) चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख (पीड़ा) से मुक्त न कर सके; यह मेरी अनाथता है।
२४. पिया मे सव्वसारं पि दिजाहि मम कारणा।
न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया॥