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उत्तराध्ययन / ४०
दुःख का मूल आसक्ति
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सातवें अध्ययन में अनासक्ति पर बल दिया है। जहाँ आसक्ति है, वहाँ दुःख है, जहाँ अनासक्ति है, वहाँ सुख है। इन्द्रियाँ क्षणिक सुख की ओर प्रेरित होती हैं, पर वह सच्चा सुख नहीं होता। वह सुखाभास है। प्रस्तुत अध्ययन में पांच उदाहरणों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। पांचों दृष्टान्त अत्यन्त हृदयग्राही हैं। प्रस्तुत अध्ययन का नाम समवायांग ११७ और उत्तराध्ययननियुक्ति ११८ में " उरब्भिज्जं " है। अनुयोगद्वार में "एलइज्ज" नाम प्राप्त होता है । ११९, प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में भी 'एलयं' शब्द का ही प्रयोग हुआ है। उरभ्र और एलक, ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, अतः ये दोनों शब्द आगम साहित्य में आये हैं। इनके अर्थ में कोई भिन्नता नहीं है।
लोभ
के
आठवें अध्ययन में लोभ की अभिवृद्धि का सजीव चित्रण किया गया है। लोभ उस सरिता की तेज धारा सदृश है जो आगे बढ़ना जानती है, पीछे हटना नहीं। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों द्रौपदी के चीर की तरह लोभ बढ़ता चला जाता है। लोभ को नीतिकारों ने पाप का बाप कहा है। अन्य कषाय एक-एक सद्गुण का नाश करता है, पर लोभ सभी सद्गुणों का नाश करता है। क्रोध, मान, माया के नष्ट होने पर भी लोभ की विद्यमानता में वीतरागता नहीं आती। बिना वीतराग बने सर्वज्ञ नहीं बनता। कपिल केवली के कथानक द्वारा यह तथ्य उजागर हुआ है कपिल के अन्तर्मानस में लोभ की बाढ़ इतनी अधिक आ गई थी कि उसकी प्रतिक्रियास्वरूप उसका मन विरक्ति से भर गया। वह सब कुछ छोड़कर निर्ग्रन्थ बन गया। एक बार तस्करों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। कपिल मुनि ने संगीत की सुरीली स्वर लहरियों में मधुर उपदेश दिया। संगीत के स्वर तस्करों को इतने प्रिय लगे कि वे भी उन्हीं के साथ गाने लगे। कपिल मुनि के द्वारा प्रस्तुत अध्ययन गाया गया था, इसलिए इस अध्ययन का नाम "कापिलीय" अध्ययन है। वादीवेताल शान्तिसूरि ने अपनी बृहदवृत्ति में इस सत्य को व्यक्त किया है। जिनदासगणी महत्तर ने प्रस्तुत अध्ययन को 'ज्ञेय' माना है। १२१ "अधुवे असासर्पमि संसारम्मि दुक्खपउराए" यह ध्रुव पद था, जो प्रत्येक गाथा के साथ गाया गया। कितने ही तस्कर तो प्रथम गाथा को सुनकर ही संबुद्ध हो गये। कितनेक दूसरी, तीसरी गाथा को सुनकर संबुद्ध हुए। इस प्रकार ५०० तस्कर प्रतिबुद्ध होकर मुनि बने प्रस्तुत अध्ययन में ग्रन्थित्याग, संसार की असारता, कुतीर्थियों की अज्ञता, अहिंसा, विवेक, स्त्री-संगम प्रभृति अनेक विषय चर्चित हैं। कपिल स्वयंबुद्ध थे उन्हें स्वयं ही बोध प्राप्त हुआ था।
आठवें अध्ययन में कहा गया है— जो साधु लक्षणाशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करता है,
११७. समवायांग, समवाय ३६
११८. उरभाउणमगोय वेयंतो भागओ उ ओरभो ।
ततो समुट्ठियमिणं, उरब्भज्जन्ति अज्झयणं ॥ —उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा २४६
११९. अनुयोगद्वार सूत्र १३०
१२०. सावि पंचवि चोरस्याणि ताले कुट्टेति सोऽवि गायति भुवगं, "अभुवे असासयंमि संसारंभि दुक्खपराए।
...ता हे
किं नाम हो कम्मयं जेणाहं दुग्गई व गच्छेला ॥१॥ एवं सव्वत्थ सिलोगन्तरे ध्रुवगं गायति 'अधुवेत्यादि'
स हि भगवान्
, तत्थ केई पढमसिलोग संबुद्धा के बीए, एवं जान पंचवि सपा संबुद्धा पव्वतियत्ति कपिलनामा ध्रुवकं सङ्गतान्। १२१. गेयं णाम सरसंचारेण, जधा काविलिजे
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- बृहद्वृत्ति, पत्र २८९ 'अधुवे असासयंमि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
न गच्छेज्जा ।"
— सूत्रकृतांगचूर्णि पृष्ठ ७