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- समीक्षात्मक अध्ययन/३९ - पद्मपुराण९०९, स्कन्दपुराण११०, मत्स्यपुराण१११, ब्रह्मपुराण११२, लिङ्गपुराण११३, में स्पष्ट उल्लेख है कि जो इन स्थलों पर मृत्यु को वरण करता है, भले ही वह स्वस्थ हो या अस्वस्थ, मुक्ति को अवश्य ही प्राप्त करता है।
वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में परस्पर विरोधी वचन प्राप्त होते हैं। कहीं पर आत्मघात को निकृष्ट माना है तो कहीं पर उसे प्रोत्साहन भी दिया गया है। कहीं पर जैनपरम्परा की तरह समाधिमरण का मिलता-जुलता वर्णन है। किन्तु जल-प्रवेश, अग्निप्रवेश, विषभक्षण, गिरिपतन, शस्त्राघात के द्वारा मरने का वर्णन अधिक है। इस प्रकार मृत्यु के वरण में कषाय की तीव्रता रहती है। श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार के मरण को बालमरण कहा है। क्योंकि ऐसे मरण में समाधि का अभाव होता है।
इस्लामधर्म में स्वैच्छिक मृत्यु का विधान नहीं है। उसका मानना है कि खुदा की अनुमति के विना निश्चित समय से पूर्व किसी को मरने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार ईसाईधर्म में भी आत्महत्या का विरोध किया गया है। ईसाइयों का मानना है कि न तुम्हें दूसरों को मारना है और न स्वयं मरना है।११४
संक्षेप में कहा जाय तो उत्तराध्ययन में मृत्यु के सन्निकट आने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर आत्मध्यान करते हुए जीवन और मरण की कामना से मुक्त होकर समभाव पूर्वक प्राणों का विसर्जन करना "पण्डित-मरण" या "सकाम-मरण" है। जो व्यक्ति जन, परिजन, धन आदि में मूर्छित होकर मृत्यु को वरण करता है, उसका मरण "बाल-मरण" या "अकाम-मरण" है। अकाम और बाल मरण को भगवान् महावीर ने त्याज्य बताया है।
निर्ग्रन्थ : एक अध्ययन
छठे अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय' है। 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन-परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है। आगम-साहित्य में शताधिक स्थानों पर निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग हुआ है। बौद्धसाहित्य में "निग्गंठो नायपुत्तो" शब्द अनेकों बार व्यवहृत हुआ है।११५ तपागच्छ पट्टावली में यह स्पष्ट निर्देश है कि गणधर सुधर्मास्वामी से लेकर आठ पट्ट-परम्परा तक निर्ग्रन्थ-परम्परा के रूप में विश्रुत थी। सम्राट अशोक के शिलालेखों में 'नियंठ' शब्द का प्रयोग हुआ है,११६ जो निर्ग्रन्थ का ही रूप है। ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं—एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना 'स्थूल-ग्रन्थ' कहलाता है तथा आसक्ति का होना 'सूक्ष्म-ग्रन्थ' है। ग्रन्थ का अर्थ गांठ है। निर्ग्रन्थ होने के लिए स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही ग्रन्थियों से मुक्त होना आवश्यक है। राग-द्वेष आदि कषायभाव 'आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ' हैं। उन्हीं ग्रन्थियों के कारण बाह्यग्रन्थ एकत्रित किया जाता है। श्रमण इन दोनों ही ग्रन्थियों का परित्याग कर साधना के पथ पर अग्रसर होता है। प्रस्तुत अध्ययन में इस सम्बन्ध में गहराई से अनचिन्तन किया गया है।
१०९. पद्मपुराण आदिकाण्ड ४४-३, १-१६-१४, १५ ११०. स्कन्दपुराण २२, ७६ १११. मत्स्यपुराण १८६, ३४-३५
११२. ब्रह्मपुराण ६८,७५, १७७, १६-१७, १७७, २५ ११३. लिङ्गपुराण ९२, १६८-१६९ ११४. Thou shalt not kill, neither thyself nor another. ११५. विसुद्धिमग्गो, विनयपिटक ११६. (क) श्री सुधर्मस्वामिनोऽष्टौ सूरीन् यावत् निर्ग्रन्थाः। -तपागच्छ पट्टावली (पं. कल्याणविजय संपादित) भाग १, पृष्ठ २५३
(ख) निघंठेसु पि मे कटे (,) इमे वियापटा होहंति। -दिल्ली-टोपरा का सप्तम स्तम्भलेख