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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय २९३ २०. एवं धम्मं अकाऊणं जो गच्छइ परं भवं। गच्छन्तो सो दुही होइ वाहीरोगेहिं पीडिओ॥ [२०] इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म (धर्माचरण) किये बिना परभव में जाता है वह जाता हुआ व्याधि और रोग से पीड़ित एवं दुःखी होता है। २१. अद्धाणं जो महन्तं तु सपाहेओ पवजई। गच्छन्तो सो सुही होइ छुहा-तण्हाविवजिओ॥ [२१] जो मनुष्य पाथेय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह चलता हुआ भूख और प्यास (के दुःख) से रहित होकर सुखी होता है। २२. एवं धम्म पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं। __गच्छन्तो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे॥ [२२] इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्माचरण करके परभव (आगामी जन्म) में जाता है, वह अल्पकर्मा (जिसके थोड़े से कर्म शेष रहे हों, वह) जाता हुआ वेदना से रहित एवं सुखी होता है। २३. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू। सारभण्डाणि नीणेइ असारं अवउज्झइ॥ [२३] जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह (उस घर में रखी हुई) सारभूत वस्तुएं बाहर निकाल लाता है और असार (तुच्छ) वस्तुओं को (वहीं) छोड़ देता है। २४. एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि तुब्भेहिं अणुमन्निओ॥ [२४] इसी प्रकार जरा और मरण से जलते हुए इस लोक में से आपकी अनुमति पाकर सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकालूंगा। विवेचन–भोगों का परिणाम प्रस्तुत में भोगों को जहरीले फल के समान कटुपरिणाम वाला बताया गया है। इसका आशय यही है कि विषयभोग भोगते समय पहले तो मधुर एवं रुचिकर लगते हैं, किन्तु भोग लेने के पश्चात् उनका परिणाम अत्यन्त कटु होता है। इसलिए भोग सतत दुःख-परम्परा को बढ़ाते हैं, दु:ख लाते हैं। शरीर की अनित्यता, अशुचिता एवं दुःखभाजनता-१३-१४-१५ वीं गाथाओं में कहा गया है कि शरीर अनित्य अशुचि, तथा शुक्र-शोणित आदि घृणित वस्तुओं से बना हुआ एवं भरा हुआ है और वह भी दु:ख एवं क्लेश का भाजन है, शरीर के लिए मनुष्य को अनेक क्लेश, दुःख, संकट, रोग, शोक, भय, चिन्ता, आधि, व्याधि, उपाधि आदि सहने पड़ते हैं। शरीर के पालन-पोषण, संवर्द्धन, रक्षण आदि में रातदिन अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं। इस कारण इस मनुष्य शरीर को व्याधि और रोग का घर तथा जरामरणग्रस्त बताकर मृगापुत्र ने ऐसे नश्वर एवं एक दिन अवश्य त्याज्य इस शरीर में रहने में अपनी अनिच्छा एवं अरुचि दिखाई है।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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