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एगूणविंसइमं अज्झयणं : मियापुन्तिज्जं उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय
मृगापुत्र का परिचय
१. सुग्गीवे नयरे रम्मे काणणुज्जाणसोहिए । राया बलभद्दे त्ति मिया तस्सऽग्गमाहिसी ॥
[१] वनों और उद्यानों से सुशोभित सुग्रीव नामक रमणीय नगर में बलभद्र नामक राजा (राज्य करता था । 'मृगा' उसकी अग्रमहिषी ( - पटरानी ) थी ।
२.
सिं पुत्ते बलसिरी मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए जुवराया दमीसरे ॥
[२] उनके 'बलश्री' नामक पुत्र था, जो 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध था । वह माता-पिता को अत्यन्त वल्लभ था तथा दमीश्वर एवं युवराज था ।
३.
नन्द सो उपासाए कीलए सह इत्थिहिं । देवो दोगुन्दगो चेव निच्चं मुइयमाणसो ॥
[३] वह प्रसन्नचित्त से नन्दन ( आनन्ददायक ) प्रासाद ( राजमहल) में दोगुन्दक देव की तरह अपनी पत्नियों के साथ क्रीड़ा किया करता था ।
विवेचन—दमीसरे – (१) (वर्तमान काल की अपेक्षा से — ) उद्धत लोगों का दमन करने वाले राजाओं का ईश्वर-प्रभु ( २ ) इन्द्रियों को दमन करने वाले व्यक्तियों में अग्रणी, अथवा (३) उपशमशील व्यक्तियों में ईश्वर-प्रधान । (भविष्यकाल की अपेक्षा से ) ।
१
काणणुज्जाणसोहिए : अर्थ - कानन का अर्थ है-बड़े-बड़े वृक्षों वाला वन और उद्यान का अर्थ - आराम या क्रीड़ावन । इन दोनों से सुशोभित ।
२
युवराया – युवराज पद पर अभिषिक्त, राज्यपद की पूर्व स्वीकृति का द्योतक ।
देवो दोगुंदगो : अर्थ – दोगुन्दक देव त्रायस्त्रिश होते हैं, वे सदैव भोगपरायण रहते हैं। ऐसी वृद्धपरम्परा
है । ३
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ (ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ४१७
२. काननैः बृहद्वृक्षाश्रयैर्वनैरुद्यानैः आरामैः क्रीड़ावनैर्वा शोभिते । —बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : दोगुन्दकाश्च त्रायस्त्रिशा:, तथा च वृद्धा: - ' त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दगा इति भण्णंति । '