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- समीक्षात्मक अध्ययन/३७ . अपितु स्वर्ग के अनुपम सुखों को भोगने वाले देव और इन्द्र भी काँपते हैं। संसार में जितने भी भय हैं, उन सब में मृत्यु का भय सबसे बढ़कर है। पर चिन्तकों ने कहा- तुम मृत्यु से भयभीत मत बनो! जीवन और मरण तो खेल है। तुम खिलाड़ी बनकर कलात्मक ढंग से खेलो, चालक को मोटर चलाने की कला आनी चाहिए तो मोटर को रोकने की कला भी आनी चाहिए। जो चालक केवल चलाना ही जानता हो, रोकने की कला से अनभिज्ञ हो, वह कुशल चालक नहीं होता। जीवन और मरण दोनों ही कलाओं का पारखी ही सच्चा पारखी है। जैसे हँसते हुए जीना आवश्यक है, वैसे ही हँसते हुए मृत्यु को वरण करना भी आवश्यक है। जो हँसते हुए मरण नहीं करता है, वह अकाममरण को प्राप्त होता है। अकाममरण विवेकरहित और सकाममरण विवेकयुक्त मरण है। अकाममरण में विषय-वासना की प्रबलता होती है, कषाय की प्रधानता होती है और सकाममरण में विषय-वासना और कषाय का अभाव होता है। सकाममरण में साधक शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मानता है। शुद्ध दृष्टि से आत्मा विशुद्ध है, अनन्त आनन्द-मय है। शरीर का कारण कर्म है और कर्म से ही मृत्यु
और पुनर्जन्म है। इसलिए उस साधक के मन में न वासना होती है और न दुर्भावना ही होती है। वह विना किसी कामना के स्वेच्छा से प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को इसलिए वरण करता है कि उसका शरीर अब साधना करने में सक्षम नहीं है। अत: समाधिपूर्वक सकाममरण की महिमा आगम व आगमेतर साहित्य में गाई गई है।
सकाममरण को पण्डितमरण भी कहते हैं। पण्डितमरण के अनेक भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ आगम-साहित्य में विस्तार से निरूपित हैं। बालमरण के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। विस्तारभय से उन सभी की चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं। आत्म-बलिदान और समाधिमरण में बहुत अन्तर है। आत्म-बलिदान में भावना की प्रबलता होती है। विना भावातिरेक के आत्म-बलिदान सम्भव नहीं है। समाधिमरण में भावातिरेक नहीं होता। उसमें विवेक और वैराग्य की प्रधानता होती है।
___आत्मघात और संलेखना-संथारे में भी आकाश-पाताल जितना अन्तर है। आत्मघात करने वाले के चेहरे पर तनाव होता है, उसमें एक प्रकार का पागलपन आ जाता है। आकुलता-व्याकुलता होती है। जबकि समाधिमरण करने वाले की मृत्यु आकस्मिक नहीं होती। आत्मघाती में कायरता होती है, कर्त्तव्य से पलायन की भावना होती है, पर पण्डितमरण में वह वृत्ति नहीं होती। वहाँ प्रबल समभाव होता है। पण्डितमरण के सम्बन्ध में जितना जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है, उतना अन्य मनीषियों ने नहीं।
बौद्धपरम्परा में इच्छापूर्वक मृत्यु को वरण करने वाले साधकों का संयुक्तनिकाय में समर्थन भी किया है। सीठ, सप्पदास, गोधिक, भिक्षुवक्कली-४, कुलपुत्र और भिक्षुछत्र-५, ये असाध्य रोग से ग्रस्त थे। उन्होंने आत्महत्याएँ कीं। तथागत बुद्ध को ज्ञात होने पर उन्होंने अपने संघ को कहा—ये भिक्षु निर्दोष हैं। इन्होंने आत्महत्याएँ कर परिनिर्वाण को प्राप्त किया है। आज भी जापानी बौद्धों में हाराकीरी (स्वेच्छा से शस्त्र के द्वारा आत्महत्या) की प्रथा प्रचलित है। बौद्धपरम्परा में शस्त्र के द्वारा उसी क्षण मृत्यु को वरण करना श्रेष्ठ माना है। जैनपरम्परा ने इस प्रकार मरना अनुचित माना है, उसमें मरने की आतुरता रही हुई है।
वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में आत्महत्या को महापाप माना है। पाराशरस्मृति में उल्लेख है-क्लेश, भय, घमण्ड, क्रोध आदि के वशीभूत होकर जो आत्महत्या करता है, वह व्यक्ति ६० हजार वर्ष तक नरक में निवास
८४. संयुक्तनिकाय-२१-२-४-५. ८५. (क) संयुक्तनिकाय -३४-२-४-४
(ख) History of Suicide in India-Dr. Upendra Thakur p.107