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________________ २६६ या उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन–खत्तिए परिभासइ : तात्पर्य—किसी क्षत्रिय ने दीक्षा धारण कर ली। वह भी राजर्षि था। पूर्वजन्म में वह वैमानिक देव था। वहाँ से च्यवन करके उसने क्षत्रियकुल में जन्म लिया था। किसी निमित्त से उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गई, जिससे संसार से विरक्त होकर उसने प्रव्रज्या धारण कर ली थी। उस मुनि का नाम न लेकर शास्त्रकार क्षत्रियकुल में उसका जन्म होने से क्षत्रिय नाम से उल्लेख करते हैं कि क्षत्रिय ने संजय राजर्षि से सम्भाषण किया। संजय राजर्षि से क्षत्रिय के प्रश्न : कब और कैसी स्थिति में?-जब संजय राजर्षि दीक्षा धारण करके कुछ ही वर्षों में गीतार्थ हो गए थे और निर्ग्रन्थमुनि-समाचारी का सावधानीपूर्वक पालन करते हुए गुरु की आज्ञा से एकाकी विहार करने लग गए थे, वे विहार करते हुए एक नगर में पधारे। वहीं इन अप्रतिबद्धविहारी, क्षत्रियमुनि ने उनसे भेंट की और परिचय प्राप्त करने के लिए उक्त प्रश्न किये। पांच प्रश्न : आशय-क्षत्रियमुनि के पांच प्रश्न थे-आपका नाम व गोत्र क्या है? आप किसलिए मुनि बने हैं? आप एकाकी विचरण कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में आचार्यों की परिचर्या कैसे और कब करते हैं? तथा आचार्य के सान्निध्य में न रहने के कारण विनीत कैसे कहलाते हैं?२ माहणे—'माहन' शब्द का व्युत्पति-जन्य अर्थ है-जिसका मन, वचन और क्रिया हिंसानिवृत्ति(मत मारो इत्यादि) रूप है, वह माहन है। उपलक्षण से हिंसादि सर्वपापों से विरत मुनि ही यहां माहन शब्द से गृहीत हैं। राष्ट्र शब्द की परिभाषा–यहाँ 'राष्ट' ग्राम नगर आदि का समदाय या मण्डल है। एक जनपद या प्रान्त को ही प्राचीनकाल में राष्ट्र कहा जाता था। एक ही राज्य में अनेक राष्ट्र होते थे। वर्तमान में राष्ट्र शब्द का अर्थ है-अनेक राज्यों (प्रान्तों) का समुदाय ।। पसन्नं ते तहा० : निष्कर्ष-अन्त:करण कलुषित हो तो बाह्य आकृति अकलुषित ( प्रसन्न, निर्विकार) नहीं हो सकती। इसीलिए संजय राजर्षि की बाह्य आकृति पर से क्षत्रियमुनि ने उनके अन्तर की निर्विकारता का अनुमान किया था। संजय राजर्षि द्वारा परिचयात्मक उत्तर २२. संजओ नाम नामेणं तहा गोत्तेण गोयमो। गद्दभाली ममायरिया विजाचरणपारगा॥ १. (क) बृहद्वत्ति, पत्र ४४२ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. १२५ २. (क) "स चैवं गृहीतप्रव्रज्योऽधिगतहेयोपादेयविभागो दशविधचक्रवालसामाचारीरतश्चानियतविहारितया विहरन् तथाविधसन्निवेशमाजगाम।"-उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४२ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. १२५ ३. (क) माहणेत्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक् क्रिया यस्याऽसौ माहनः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ४४२ (ख) मा हन्ति कमपि प्राणिनं मनोवाक्कायैर्यः स माहन:-प्रव्रजितः। -उत्तरा. प्रिय., भा. ३, पृ. १२६ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४११, ४४२– राष्ट्र-ग्रामनगरादिसमुदायम्, 'मण्डलम्'। (ख) 'राज्यं' राष्ट्रादिसमुदायात्मकम्, राष्ट्रं च जनपदं च। -राजप्रश्नीय. वृत्ति, पृ. २७६ ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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