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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय मुनि के मौन से राजा की भयाकुलता
९. अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए।
रायाणं न पडिमन्तेइ तओ राया भयदुओ॥ [९] उस समय वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान (धर्मध्यान) में मग्न थे। (अतः) उन्होंने राजा को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इस कारण राजा भय से और अधिक त्रस्त हो गया।
१०. संजओ अहमस्सीति भगवं! वाहराहि मे।
कुद्धे तेएण अणगारे डहेज नरकोडिओ॥ [१०] (राजा ने कहा)-भगवन् ! मैं 'संजय' हूँ। आप मुझ से वार्तालाप करें, बोलें; (क्योंकि) क्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर सकता है।
विवेचन—न पडिमंतेइ—प्रत्युत्तर नहीं दिया (अतः राजा ने सोचा—'मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ, या नहीं' ऐसा मुनि ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इससे मालूम होता है कि ये अवश्य ही क्रुद्ध हो गये हैं, इसी कारण ये मुझ से कुछ भी नहीं बोलते)।
भयदुओ—मुनि के मौन रहने के कारण राजा अत्यन्त भयत्रस्त हो गया कि न जाने ये ऋषि कुपित होकर क्या करेंगे?
संजओ अहमस्सीति- भयभीत राजा ने नम्रतापूर्वक अपना परिचय दिया—'मैं 'संजय' नामक राजा हूँ।' यह इस आशय से कि कहीं मुझे ये नीच समझ कर कोप करके भस्म न कर दें।
कुद्धे तेएण०-राजा बोला-'मैं इसलिए भयत्रस्त हूँ कि आप मुझ से बात नहीं कर रहे हैं। मैंने सुना है कि तपोधन अनगार कुपित हो जाएँ तो अपने तेज (तपोमाहात्म्यजनित तेजोलेश्यादि) से सैकड़ों, हजारों ही नहीं, करोड़ों मनुष्यों को भस्म कर सकते हैं।' मुनि के द्वारा अभयदान, अनासक्ति एवं अनित्यता आदि का उपदेश
११. अभओ पत्थिवा! तुब्भं अभयदाया भवाहि य।
अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि? [११] मुनि के कहा—हे पृथ्वीपाल! तुझे अभय है। किन्तु तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में रचा-पचा है?
१२. जया सव्वं परिच्चज गन्तव्वमवसस्स ते।
. अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रजम्मि पसजसि?॥ [१२] जब कि तुझे सब कुछ छोड़ कर अवश्य ही विवश होकर (परलोक में) चले जाना है, तब इस अनित्य जीवलोक में तू राज्य में क्यों आसक्त हो रहा है?
१३. जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपाय-चंचलं।
जत्थ तं मुझसी रायं! पेच्चत्थं नावबुज्झसे॥
१. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३९