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उत्तराध्ययन सूत्र [८] ब्रह्मचर्य में लीन रहने वाला, चित्त-समाधि से सम्पन्न साधु संयमयात्रा (या जीवन-निर्वाह) के लिए उचित (शास्त्र-विहित) समय में धर्म (मुनिधर्म की मर्यादानुसार) उपलब्ध परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक भोजन न करे।
९. विभूसं परिवजेजा सरीरपरिमण्डणं।
बम्भचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए॥ [९] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु विभूषा का त्याग करे, शृंगार के लिए शरीर का मण्डन (प्रसाधन) न करे।
१०. सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य।
___पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए॥ [१०] वह शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श—इन पांच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे।
विवेचन—विविक्त, अनाकीर्ण और रहित : तीनों का अन्तर—विविक्त का अर्थ है-स्त्री आदि के निवास से रहित एकान्त, अनाकीर्ण का अर्थ है-उन-उन प्रयोजनों से आने वाली स्त्रियों आदि से अनाकुल-भरा न रहता हो ऐसा स्थान तथा रहित का अर्थ है-अकाल में व्याख्यान, वन्दन आदि के लिए आने वाली स्त्रियों से रहित-वर्जित ।।
कामरागविवङ्कणी : अर्थ-कामराग-विषयासक्ति की वृद्धि करने वाली।
चक्खुगिझं० : तात्पर्य-चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंगादि को न देखे, न देखने का प्रयत्न करे। यद्यपि नेत्र होने पर रूप का ग्रहण अवश्यम्भावी है, तथापि यहाँ प्रयत्नपूर्वक स्वेच्छा से देखने का परित्याग करना चाहिए, यह अर्थ अभीष्ट है। कहा भी है-चक्षु-पथ में आए हुए रूप का न देखना तो अशक्य है, किन्तु बुद्धिमान् साधक राग-द्वेषवश देखने का परित्याग करे।२
मयविवड्डणं—मद का अर्थ यहाँ—कामोद्रेक—कामोत्तेजन है, उसको बढ़ाने वाला (मद-विवर्द्धन)।
धम्मलद्धं : तीन रूप : तीन अर्थ (१) धर्म्यलब्ध-धर्म्य-धर्मयुक्त एषणीय, निर्दोष भिक्षा द्वारा गृहस्थों से उपलब्ध, न कि स्वयं निर्मित, (२) धर्म-मुनिधर्म के कारण या धर्मलाभ के कारण लब्ध, न कि चमत्कारप्रदर्शन से प्राप्त और (३) धर्मलब्धं'–उत्तम दस धर्मों को निरतिचार रूप से प्राप्त करने के लिए प्राप्त।
_ 'मियं-मितं'—सामान्य अर्थ है-परिमित, परन्तु इसका विशेष अर्थ है-शास्त्रोक्त परिमाणयुक्त आहार। आगम में कहा है-पेट में छह भागों की कल्पना करे, उनमें से आधा-यानी तीन भाग सागतरकारी सहित भोजन से भरे, दो भाग पानी से भरे और एक भाग वायुसंचार के लिए खाली रखे।
'जत्तत्थं'–यात्रार्थ—संयमनिर्वाहार्थ, न कि शरीरबल बढ़ाने एवं रूप आदि से संपन्न बनने के लिए। १. बृहवृत्ति, पत्र ४२८ २. वही, पत्र ४२८ : असक्का रूवमद्दटुं चक्खुगोयरमागयं।
रागद्दोसे उ जे तत्थ, तं बुहो परिवज्जए॥ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८-४२९ ५. (क) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ.७३ (ख) बृहदवृत्ति, पत्र ४२९