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सोलहवाँ अध्ययन : ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
पूर्वोक्त दस समाधिस्थानों का पद्यरूप में विवरण
१.
[१] निर्ग्रन्थ साधु ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ऐसे स्थान ( आलय) में रहे, जो विविक्त (एकान्त ) हो, अनाकीर्ण– (स्त्री आदि से अव्याप्त) और स्त्रीजन से रहित हो ।
२.
३.
जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थीजणेण य । भरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए ॥
मणपल्हायजणणिं कामरागविवड्ढणिं । बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए ॥
[२] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाली और कामराग बढ़ाने वाली स्त्रीकथा का त्याग करे ।
समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ॥
[३] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु स्त्रियों के साथ संस्तव (संसर्ग या अतिपरिचय) और बार-बार वार्तालाप (संकथा) का सदैव त्याग करे ।
४.
६.
अंगपच्चंग-संठाणं चारुल्लविय - पेहियं । बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए ॥
[४] ब्रह्मचर्यपरायण साधु नेत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान ( आकृति, डीलडौल या शरीर रचना), बोलने की सुन्दर छटा ( या मुद्रा), तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे ।
५.
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८.
कूइयं रुइयं गीयं हसियं थणिय-कन्दियं । बंभचेररओ थीणं सोयगिज्झं विवज्जए ॥
[५] ब्रह्मचर्य में रत साधु श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने ।
हासं किड्ड रई दप्पं सहभुत्तासियाणि य । बम्भेचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि ॥
[६] ब्रह्मचर्य-निष्ठ साधु दीक्षाग्रहण से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प (कन्दर्प, या मान) और साथ किए भोजन एवं बैठने का कदापि चिन्तन न करे ।
७.
पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्डणं ।
बम्भचेररओ भिक्खू निच्चओ परिवज्जए ॥
[७] ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भोजन-पान का सदैव त्याग
करे ।
धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुंजेज्जा बम्भचेररओ सया ॥