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उत्तराध्ययन सूत्र विवेचन-मोणं : दो अर्थ-(१) मौन-वचनगुप्ति, (२) जो त्रिकालावस्थित जगत् को जानता है या उस पर मनन करता है, वह मुनि है, मुनि का भाव या कर्म मौन है। यहाँ प्रसंगवश मौन का अर्थसमग्र श्रमणत्व या मुनिभाव (धर्म) है।
सहिए : सहित : दो रूप : तीन अर्थ- (१) सहित—सम्यग्दर्शन आदि (ज्ञान, चारित्र एवं तप) से युक्त, सम्यग्ज्ञानक्रिया से युक्त, (२) सहित-दूसरे साधुओं के साथ, (३) स्वहित-स्वहित(सदनुष्ठानरूप) से युक्त, अथवा स्व-आत्मा का हितचिन्तक।२
सहित शब्द से एकाकीविहारनिषेध प्रतिफलित-आचार्य नेमिचन्द्र ‘सहित' शब्द का अर्थ'अन्य साधओं के साथ रहना' बताकर एकाकी विहार में निम्नोक्त दोष बताते हैं-(१) स्त्रीप्रसंग की सम्भावना, (२) कुत्ते आदि का भय, (३) विरोधियों-विद्वेषियों का भय, (४) भिक्षाविशुद्धि नहीं रहती, (५) महाव्रतपालन में जागरूकता नहीं रहती।
नियाणछिन्ने—निदानछिन्न : तीन अर्थ-(१) निदान—विषयसुखासक्तिमूलक संकल्प अथवा (२) निदान–बन्धन-प्राणातिपातादि कर्मबन्ध का कारण। जिसका निदान छिन्न हो चुका है। अथवा (३) छिन्ननिदान का अर्थ-अप्रमत्तसंयत है।।
उजुकडे-ऋजुकृत : दो अर्थ-(१) ऋजु–संयम, जिसने ऋजुप्रधान अनुष्ठान किया है, (२) ऋजु-जिसने माया का त्याग करके सरलतापूर्वक धर्मानुष्ठान किया है।
संथवं जहिज-संस्तव अर्थात्-परिचय को जो छोड़ देता है, पूर्वपरिचित माता-पिता आदि, पश्चात्परिचित सास ससुर आदि के संस्तव का जो त्याग करता है, वह।
अकामकामे अकामकाम : दो अर्थ -(१) इच्छाकाम और मदनकामरूप कामों की जो कामनाअभिलाषा नहीं करता वह, (२) अकाम अर्थात् —मोक्ष, क्योंकि मोक्ष में मनुष्य सकल कामों-अभिलाषाओं से निवृत्त हो जाता है। उस अकाम-मोक्ष की जो कामना करता है, वह।
राओवरयं : दो रूप : दो अर्थ (१) रागोपरत-राग (आसक्ति या मैथुन) से उपरत, (२) रात्र्युपरत–रात्रिभोजन तथा रात्रिविहार से उपरत—निवृत्त ।
वेयवियाऽऽयरिक्खिए–वेदविदात्मरक्षित : दो रूप : दो अर्थ -(१) वेदवित् होने के कारण १. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ. २६४ : मन्यते त्रिकालावस्थितं जगदिति मुनिः, मुनिभावो मौनम्।
(ख) 'मुनेः कर्म मौनं, तच्च सम्यक्चारित्रम्।' -बृहृवृत्ति, पत्र ४१४
(ग) 'मौनं श्रामण्यम्।' -सुखबोधा, पत्र २१४ २. (क) 'सहितः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः।' -चूर्णि, पृ. २३४,
(ख) सहितः सम्यग्दर्शनादिभिः साधुभिर्वा । -ब्रहवृत्ति, पत्र ४१४ (ग) वही, पत्र ४१४: स्वस्मै हितः स्वहितो वा सदनुष्ठानकरणतः। (घ) सहितः सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्याम्। -बृ. वृत्ति, पत्र ४१६
(ड.) वही, पत्र ४१६: सहहितेन आयतिपथ्येन, अर्थादनुष्ठानेन वर्तते इति सहितः। ३. एगागियस्स दोसा, इत्थि साणे तहेव पडिणीए। भिक्खविसोहि-महव्वय, तम्हा सेविज दोगमणं॥
-सुखबोधा, पत्र २१४ ४. बृहवृत्ति, पत्र ४१४