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________________ तेरहवाँ अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय २०३ में ब्रह्मदत्त चक्री के जन्मस्थान काम्पिल्यनगर में हुआ था। चित्र का जीव मुनि के रूप में काम्पिल्यपुर में आया हुआ था। उन्हीं दिनों ब्रह्मदत्त चक्री को जातिस्मरण ज्ञान से पूर्वजन्मों की स्मृति हो गई। उसने अपने पूर्वजन्म के भाई चित्र को खोजने के लिए आधी गाथा बना कर घोषणा करवा दी कि जो इसकी आधी गाथा की पूर्ति कर देगा, उसे मैं आधा राज्य दे दूंगा। संयोगवश उसी निमित्त से चित्र के जीव का मुनि के रूप में पता लग गया। इस प्रकार पांच पूर्वजन्मों में सहोदर रहे हुए दोनों भ्राताओं का अपूर्व मिलन हुआ। इसकी पूर्ण कथा अध्ययनसार में दी गई है।१ । चित्र मुनि और ब्रह्मदत्त द्वारा पूर्वभवों का संस्मरण- ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पिछले भवों में सहोदर होकर साथ साथ रहने की स्मृति दिलाते हुए कहा कि यह छठा जन्म है, जिसमें हम लोग पृथक्-पृथक् कुल और देश में जन्म लेने के कारण एक दूसरे से बहुत दूर पड़ गए हैं और दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी नहीं बन सके हैं। चित्र मुनि और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का एक दूसरे की ओर खींचने का प्रयास ८. कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय! विचिन्तिया। तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया॥ [८](मुनि)- राजन् ! तुमने निदान (आसक्तिसहित भोगप्रार्थनारूप) से कृत (-उपार्जित) (ज्ञानावरणीयादि) कर्मों का विशेष रूप से (आर्तध्यानपूर्वक) चिन्तन किया। उन्हीं कर्मों के फलविपाक (उदय) के कारण (अतिप्रीति वाले) हम दोनों अलग-अलग जन्मे (और बिछुड़ गए)। ९. सच्चसोयप्पगडा कम्मा मए पुरा कडा। ते अज परिभुंजामो किं नु चित्ते वि से तहा? [९] (चक्रवर्ती)-चित्र! मैंने पूर्वजन्म में सत्य (मृषात्याग) और शौच (आत्मशुद्धि) करने वाले शुभानुष्ठानों से प्रकट शुभफलदायक कर्म किये थे। उनका फल (चक्रवर्तित्व) मैं आज भोग रहा हूँ। क्या तुम भी उनका वैसा ही फल भोग रहे हो? १०. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि आया ममं पुण्णफलोववेए॥ [१०] (मुनि)- मनुष्यों के समस्त सुचीर्ण (समाचरित सत्कर्म) सफल होते हैं; क्योंकि किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है। ११. जाणासि संभूय! महाणुभागं महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं। चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं! इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया॥ [११] हे सम्भूत ! [ब्रह्मदत्त का पूर्वभव के नाम से सम्बोधन ] जैसे तुम अपने आपको महानुभाग १. बृहवृत्ति, पत्र ३८२ २. वही, पत्र ३८३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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