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________________ तेरहवाँ अध्ययन १९९ चित्र - सम्भूतीय उत्पन्न हुआ कि ऐसा नाटक मैंने कहीं देखा है। यों ऊहापोह करते-करते उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ, जिससे स्पष्ट ज्ञात हो गया कि ऐसा नाटक मैंने प्रथम देवलोक के पद्मगुल्मविमान में देखा था। पांच जन्मों के साथी चित्र से, इस छठे भव में पृथक्-पृथक् स्थानों में जन्म की स्मृति से राजा शोकमग्न हो गया और मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। यथेष्ट उपचार से राजा की चेतना लौट आई। पूर्वजन्म भाई की खोज के लिए महामात्य वरधनु के परामर्श से चक्रवर्ती ने निम्नोक्त श्लोकार्द्ध रच डाला'आस्व दासौ मृगौ हसौ, मातंगावमरौ तथा । " 44 इस श्लोकार्द्ध को प्रचारित कराते हुए राजा ने घोषणा करवाई कि 'जो इस श्लोकार्द्ध की पूर्ति कर देगा, उसे मैं अपना आधा राज्य दे दूँगा।' पर किसे पता था उस रहस्य का, जो इस श्लोक के उत्तरार्द्ध की पूर्ति करता ? श्लोक का पूर्वार्द्ध प्रायः प्रत्येक नागरिक की जबान पर था । चित्र का जीव, जो पुरिमताल नगर में धनसार सेठ के यहाँ था, युवा हुआ। एक दिन उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और वह मुनि बन गया। एक बार विहार करता हुआ वह काम्पिल्य- नगर में आकर ध्यानस्थ खड़ा हो गया। वहाँ उक्त श्लोक का पूर्वार्द्ध रहट को चलाने वाला जोर-जोर से बोल रहा था। मुनि ने सुना तो उसका उत्तरार्द्ध पूरा कर दिया एषा नौ षष्ठिका जाति : अन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः । दोनों चरणों को उसने एक पत्ते पर लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में तत्क्षण चक्रवर्ती के पास पहुँचा और एक ही सांस में पूरा श्लोक उन्हें सुना दिया। सुनते ही चक्रवर्ती स्नेहवश मूच्छित हो गए। इस पर सारी राजसभा क्षुब्ध हो गई और कुछ सभासद् सम्राट् को मूर्च्छित करने के अपराध में उसे पीटने पर उतारू हो गए। इस पर वह रहट चलाने वाला बोला- "मैंने इस श्लोक की पूर्ति नहीं की है। रहट के पास खड़े एक मुनि ने की है।' अनुकूल उपचार से राजा की मूर्च्छा दूर हुई। होश में आते ही सम्राट् ने सारी जानकारी प्राप्त की। पूर्ति का भेद खुलने पर ब्रह्मदत्त प्रसन्नतापूर्वक अपने राजपरिवार सहित मुनि के दर्शन के लिए उद्यान में पहुँचे। मुनि को देखते ही ब्रह्मदत्त वन्दना कर सविनय उनके पास बैठा। अब वे दोनों पूर्व जन्मों के भाई सुख-दुःख के फल- विपाक की चर्चा करने लगे । मुनि के इस छठे जन्म में दोनों के एक दूसरे से पृथक् होने का कारण ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती (सम्भूत के जीव ) को बताया। साथ ही यह भी समझाने का प्रयत्न किया कि पूर्वजन्म के शुभकर्मों से हम यहाँ आए हैं, तुम्हें अगर इस वियोग को सदा के लिए मिटाना है तो अपनी जीवनयात्रा को अब सही दिशा दो। अगर तुम कामभोगों को नहीं छोड़ सकते, तो कम से कम आर्य कर्म करो, धर्म स्थिर हो कर सर्वप्राणियों पर अनुकम्पाशील बनो, जिससे तुम्हारी दुर्गति तो न हो । परन्तु ब्रह्मदत्त को मुनि का एक भी वचन नहीं सुहाया । उलटे, उसने मुनि को समस्त सांसारिक सुखभोगों के लिए वार वार आमंत्रित किया । किन्तु मुनि ने भोगों की असारता, दुःखावहता,
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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