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________________ १९४ उत्तराध्ययनसूत्र भावशुद्धि है । इसीलिए मुनि ने रुद्रदेव आदि ब्राह्मणों से कहा था-जल से बाह्य (द्रव्य) शुद्धि को क्यों ढूंढ रहे हैं !१ कठिन शब्दों के अर्थ-कुसला-तत्त्वविचार में निपुण। उदयं फुसंता-आचमन आदि में जल का स्पर्श करते हुए। पाणाइं-द्वीन्द्रिय आदि प्राणी। भूयाइं-वृक्ष, उपलक्षण से अन्य वनस्पतिकायिक जीवों और पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय का ग्रहण करना चाहिए। विहेडयंति-विशेषरूप से, विविध प्रकार से विनष्ट करते हैं। परिण्णाय-ज्ञपरिज्ञा से इनका स्वरूप भलीभांति जान कर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परित्याग करके। सुसंवुडो-जिसके प्राणातिपात आदि पांचों आश्रवद्वार रुक गए हों, वह सुसंवृत है। वोसट्ठकाओ-व्युत्सृष्टकाय -विविध उपायों से या विशेष रूप से परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करने के रूप में, काया का जिसने व्युत्सर्ग कर दिया है। सुइचत्तदेहो-जो शुचि है, अर्थात्-निर्दोष व्रतवाला है तथा जो अपने देह की सारसंभाल नहीं करने के कारण देहाध्यास का त्याग कर चुका है। कुशलपुरुषों द्वारा अभिमत शुद्धि-कुशल (तत्त्वविचारनिपुण पुरुष कर्ममलनाशात्मिका) तात्त्विक शुद्धि को ही मानते हैं। ब्राह्मणसंस्कृति की मान्यतानुसार यूपादिग्रहण एवं जलस्पर्श यज्ञस्नान में अनिवार्य है और इस प्रक्रिया में प्राणियों का उपमर्दन होता है, इसीलिये सब शद्धि-प्रक्रियाएँ कर्ममल के उपचय की हेत हैं। इसलिए ऐसे प्राणिविनाश के कारणरूप शुद्धिमार्ग को तत्त्वज्ञ कैसे सुदृष्ट (सम्यक्) कह सकते हैं! वाचक उमास्वाति ने कहा है शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्धयात्मकं शुभम्। जलादिशौचं यत्रेष्टं, मूढविस्मापकं हि तत्॥ भावशुद्धिरूप आध्यात्मिक शौच (शुद्धि) को छोड़ कर जलादि शौच (बाह्यशुद्धि) को स्वीकार करना मूढजनों को चक्कर में डालने वाला है। महाजयं जन्नसिटुं-व्याख्या-कर्मशत्रुओं को परास्त करने की प्रक्रिया होने से जो महान् जयरूप है, अथवा जिस प्रकार महाजय हो उस प्रकार से यज्ञ करते हैं। श्रेष्ठ यज्ञ को कुशलजन श्रेष्ठ स्विष्ट भी कहते हैं। पसत्थं-प्रशस्त : भावार्थ-जीवोपघातरहित होने से यह यज्ञ सम्यक्चारित्री विवेकी ऋषियों के द्वारा प्रशंसनीय-श्लाघनीय है। बंभे संतितित्थे : दो रूप : दो व्याख्या ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है। क्योंकि उस तीर्थ का सेवन करने से समस्त मलों के मूल राग-द्वेष उन्मूलित हो जाते हैं। उनके उन्मूलित हो जाने पर मल की पुनः कदापि संभावना नहीं है। उपलक्षण से सत्यादि का ग्रहण करना चाहिए। जैसे कि कहा है 'ब्रह्मचर्येण, सत्येन, तपसा संयमेन च। मातंगर्षिर्गतः शुद्धिं, न शुद्धिस्तीर्थयात्रया॥' १. उत्तरा. चूर्णि, पृ. २११
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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