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उत्तराध्ययनसूत्र
हरिकेशीय अतः मैंने उसका फल चखाने के लिए इसे पागल कर दिया है। अगर आप इसे जीवित देखना चाहते हैं तो इस अपराध के प्रायश्चित्तस्वरूप उन्हीं मुनि के साथ इसका विवाह कर दीजिए। अगर राजा ने यह विवाह स्वीकार नहीं किया तो मैं राजपुत्री को जीवित नहीं रहने दूंगा।'
राजा ने सोचा-यदि मुनि के साथ विवाह कर देने से यह जीवित रहती है तो हमें क्या आपत्ति है? राजा ने यह बात स्वीकार कर ली और मुनि की सेवा में पहुँच कर अपने अपराध की क्षमा मांगी। हाथ जोड़ कर भद्रा को सामने उपस्थित करते हुए प्रार्थना की-भगवन्! इस कन्या ने आपका महान् अपराध किया है। अतः मैं आपकी सेवा में इसे परिचारिका के रूप में देता हूँ। आप इसका पाणिग्रहण कीजिए।' यह सुन कर मुनि ने शान्तभाव से कहा-राजन् ! मेरा कोई अपमान नहीं हुआ है। परन्तु मैं धन-धान्य-स्त्री-पुत्र आदि समस्त सांसारिक सम्बन्धों से विरक्त हूँ। ब्रह्मचर्यमहाव्रती हूँ। किसी भी स्त्री के साथ विवाह करना तो दूर रहा, स्त्री के सथ एक मकान में निवास करना भी हमारे लिए अकल्पनीय है। संयमी पुरुषों के लिए संसार की समस्त स्त्रियाँ माता, बहिन एवं पुत्री के समान हैं। आपकी पुत्री से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। ' कन्या ने भी अपने पर यक्षप्रकोप को दूर करने के लिए मुनि से पाणिग्रहण करने के लिए अनुनय-विनय की। किन्तु मुनि ने जब उसे स्वीकार नहीं किया तो यक्ष ने उससे कहा-मुनि तुम्हें नहीं चाहते, अत: अपने घर चलीजाओ। यक्ष का वचन सुन कर निराश राजकन्या अपने पिता के साथ वापस लौट आई।
किसी ने राजा से कहा कि 'ब्राह्मण भी ऋषि का ही रूप है। अतः मुनि द्वारा अस्वीकृत इस कन्या का विवाह यहाँ के राजपुरोहित रुद्रदेव ब्राह्मण के साथ कर देना उचित रहेगा।' यह सुन कर राजा ने इस विचार को पसंद किया। राजकन्या भद्रा का विवाह राजपुरोहित रुद्रदेव ब्राह्मण के साथ कर दिया गया।
रुद्रदेव यज्ञशाला का अधिपति था। उसने अपनी नवविवाहिता पत्नी भद्रा को यज्ञशाला की व्यवस्था सौंपी और एक महान् यज्ञ का प्रारम्भ किया। मुनि हरिकेशबल मासिक उपवास के
पारणे के दिन भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए रुद्रदेव की यज्ञशाला में पहुंच गए। * आगे की कथा प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित है ही। पूर्वकथा मूलपाठ में संकेतरूप से है, जिसे __वृत्तिकारों ने परम्परानुसार लिखा है। * मुनि और वहाँ के वरिष्ठ यज्ञसंचालक ब्राह्मणों के बीच निम्नलिखित मुख्य विषयों पर चर्चा हुई
(१) दान का वास्तविक पात्र-अपात्र, (२) जातिवाद की अतात्त्विकता, (३) सच्चा यज्ञ और उसके विविध आध्यात्मिक साधन, (४) जलस्नान, (५) तीर्थ आदि। इस चर्चा के माध्यम से ब्राह्मणसंस्कृति और श्रमण (निर्ग्रन्थ)-संस्कृति का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। यक्ष के द्वारा मुनि की सेवा भी 'देव धर्मनिष्ठपुरुषों के चरणों के दास बन जाते हैं ' इस उक्ति को चरितार्थ करती है। 00
१. देखिये-उत्तरा. अ. १२ की १२ वीं गाथा से लेकर ४७ वीं गाथा तक।