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________________ १६० ३५. अकलेवरसेणिमुस्सिया सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं समयं गोयम! मा पमायए ॥ [३५] हे गौतम! अकलेवरों (-अशरीर सिद्धों) की श्रेणी (क्षपक श्रेणी) पर आरूढ़ होकर तू भविष्य में क्षेम, शिव, और अनुत्तर सिद्धि - लोक (मोक्ष) को प्राप्त करेगा । अतः गौतम! क्षणभर का भी प्रमाद मत कर। उत्तराध्ययनसूत्र ३६. बुद्धे परिनिव्वुडे चरे गामगए नगरे व संजए। सन्तिमग्गं च बूहए समयं गोयम ! मा पमायए ॥ [३६] प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ या जागृत), उपशान्त और संयत हो कर तू गाँव और नगर में विचरण कर; शान्ति मार्ग की संवृद्धि कर । गौतम ! इसमें समयमात्र का भी प्रमाद न कर । विवेचन- अप्रामद-साधना के नौ मूलमंत्र - प्रस्तुत गाथाओं में भगवान् ने गौतमस्वामी को अप्रमाद की साधना के नौ मूलमंत्र बताए हैं - (१) मेरे प्रति तथा सभी पदार्थों के प्रति स्नेह को विच्छिन्न कर दो, (२) धन आदि परित्यक्त पदार्थों एवं भोगों को पुनः अपनाने का विचार मत करो, अनगारधर्म पर दृढ़ रहो, (३) मित्र, बान्धव आदि के साथ पुनः आसक्तिपूर्ण सम्बन्ध जोड़ने की इच्छा मत करो, (४) इस समय तुम्हें जो न्याययुक्त मोक्षमार्ग प्राप्त हुआ है, उसी पर दृढ़ रहो, (५) कंटीले पथ को छोड़कर शुद्ध राजमार्ग पर आ गए हो तो अब दृढ़ निश्चयपूर्वक इसी मार्ग पर चलो, (६) दुर्बल भारवाहक की तरह विषममार्ग पर मत चलो, अन्यथा पश्चाताप करना पड़ेगा, (७) महासमुद्र के किनारे आकर क्यों ठिठक गए? आगे बढ़ो, शीघ्र पार पहुंचो, (८) एक दिन अवश्य ही तुम सिद्धिलोक को प्राप्त करोगे, यह विश्वास रख कर चलो, (९) प्रबुद्ध, उपशान्त एवं संयत होकर शान्तिमार्ग को बढ़ाते हुए ग्राम-नगर में विचरण करो । 'वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो' का रहस्य- यद्यपि गौतमस्वामी पदार्थों में मूच्छित नहीं थे, न विषयभोगों में उनकी आसक्ति थी, उन्हें सिर्फ भगवान् के प्रति स्नेह - अनुराग था और वह प्रशस्त राग था। वीतराग भगवान् नहीं चाहते थे कि कोई उनके प्रति स्नेहबन्धन से बद्ध रहे । अतः भगवान् ने गौतमस्वामी को उस स्नेहन्तु को विच्छिन्न करने के उद्देश्य से उपदेश दिया हो, ऐसा प्रतीत होता है। भगवतीसूत्र में इस स्नेहबन्धन का भगवान् ने उल्लेख भी किया है। २ नहु जिणे अज्ज दिस्सइ, बहुमए दिस्सइ मग्गदेसिए : चार व्याख्याएँ - (१) (यद्यपि) आज (इस पंचमकाल में) जिन भगवान् नहीं दिखाई देते, किन्तु उनके द्वारा मार्ग रूप से उपदिष्ट हुआ तथा अनेक शिष्टजनों द्वारा सम्मत सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग तो दीखता है, ऐसा सोचकर भविष्य में भव्यजन सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रमाद नहीं करेंगे। (२) अथवा भाविभव्यों को उपदेश देते हुए भगवान् गौतम से कहते हैं- जैसे मार्गोपदेशक और नगर को नहीं देखते हुए भी व्यक्ति मार्ग को देख कर मार्गोपदेशक के उपदेश से उसकी प्रापकता का निश्चय कर लेता है, वैसा ही इस पंचमकाल में जिन और मोक्ष नहीं दिखाई देते, फिर भी मार्गदेशक आचार्य आदि तो दीखते हैं । अतः मुझे नहीं देखने वाले भाविभव्यजनों को उस मार्गदेशक में भी मोक्षप्रापकता का निश्चय कर लेना चाहिए । (३) तीसरी पद्धति से व्याख्या - हे गौतम! उत्त० मूलपाठ० अ० १०, गा० २८ से ३६ तक १. २. भगवती० १४/७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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